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    Home»Economy»Inflation:- मुद्रास्फीति क्या है व इसके कार्य
    Economy

    Inflation:- मुद्रास्फीति क्या है व इसके कार्य

    By NARESH BHABLAJuly 18, 2020Updated:June 14, 2021No Comments11 Mins Read
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    Inflation

    Page Contents

    • Inflation (मुद्रास्फीति)
      • Inflation means (मुद्रास्फीति का अर्थ)
        • उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer price Index- CPI)
        • थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale price index – WPI) 
        • किन्स का मुद्रा स्फीति सम्बंधि दृष्टिकोण (Keane’s inflationary attitude)
        • मुद्रास्फीति के कारण (Reason of Inflation)
        • मुद्रास्फीति के प्रभाव (Influence of Inflation)
        • मुद्रास्फीति को रोकने के उपाय (Measures to Stop Inflation)
        • मुद्रास्फीति और इसे नियंत्रण में रखने के उपाय
        • रेपो रेट और मुद्रास्फीति में संबंध (Relationship between repo rate and inflation)

    Inflation (मुद्रास्फीति)

    थोक मूल्य सूचकांक ( WPI ) और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक ( CPI ) देश में मुद्रास्फीति की गणना के लिए दो व्यापक रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले सूचकांक हैं।

    भारत मुद्रास्फीति की गणना करने के लिए थोक मूल्य सूचकांक का उपयोग करता है, जबकि अधिकांश देशों में मुद्रास्फीति नापने के लिए CPI का इस्तेमाल किया जाता है।

    Inflation means (मुद्रास्फीति का अर्थ)

    मुद्रास्फ़ीति, बाज़ार की एक ऐसी स्थिति है जिसमें वस्तुओं और सेवाओं की कीमत एक समयावधि में लगातार बढ़ती जाती हैं. अतः मुद्रा स्फीति की स्थिति में मुद्रा की कीमत कम हो जाती है। मुद्रा स्फीति की गणना करने के लिए बहुत सी विधियां इस्तेमाल की जाती हैं

    जैसे; थोक मूल्य सूचकांक, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, उत्पादक मूल्य सूचकांक, कमोडिटी मूल्य सूचकांक, जीवन निर्वाह व्यय सूचकांक, कैपिटल गुड्स प्राइस इंडेक्स और जीडीपी डेफ्लेटर।

    मुद्रासमिति का मापन निम्नलिखित प्रकार से किया जाता हैः

    1. थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index—WPI)
    2. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index—CPI)
    3. राष्ट्रीय आय विचलन (National Income Deflation—NID)
    4. थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index—WPI)

    लेकिन थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का इस्तेमाल पूरी दुनिया में सबसे अधिक किया जाता है। भारत में मुद्रास्फीति की गणना के लिए ‘थोक मूल्य सूचकांक’ का प्रयोग किया जाता है।

    अभिजीत सेन समिति (2008) की अनुसंशा के आधार पर 15 नवंबर, 2009 को ‘New Wholesale Price Index’ का प्रकाशन किया गया और सितम्बर, 2010 में इस नए थोक मूल्य सूचकांक को पूरी तरह से जारी कर दिया गया।

    इसमें पुराने सूचकांक के अप्रासंगिक मदों, जैसे- टाइपराइटर, वीसीआर, आदि को हटाया गया और उनके स्थान पर कम्प्यूटर, फ्रिज, डिश एंटिना, वी-सी-डी-, माइक्रोवेव ओवन और मिनरल वाटर जैसी नई उपभोक्तावादी वस्तुओं को शामिल किया गया।

    थोक मूल्य सूचकांक वस्तुओं एवं उनके मूल्यों की एक सूची होती है जिसमें वस्तुओं को तीन श्रेणियों में बांटा गया हैः-

    (i) प्राथमिक वस्तुएं
    (ii) ईंधन व विद्युत संवर्ग
    (iii) विनिर्मित वस्तुएं

    नोटः दुनिया के अधिकांश देशों, विशेषकर विकसित देशों में मुद्रास्फीति की दर ज्ञात करने के लिए ‘उपभोक्ता मूल्य सूचकांक’ का प्रयोग किया जाता है। ये देश हैं—जापान, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा, सिंगापुर व चीन।

    उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer price Index- CPI)

    उपभोक्ता मूल्य सूचकांक; घरेलू उपभोक्ताओं द्वारा खरीदी गयी वस्तुओं और सेवाओं (goods and services) के औसत मूल्य को मापने वाला एक सूचकांक है। इसकी गणना उपभोक्ताओं द्वारा बाजार में किये गए भुगतान के आधार पर की जाती है।

    हम लोग रोजमर्रा की जिंदगी में आटा, दाल, चावल, ट्यूशन फीस आदि पर जो खर्च करते है;  इस पूरे खर्च के औसत को ही उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के माध्यम से दर्शाया जाता है। इसमें 8 प्रकार के खर्चों को शामिल किया जाता है. ये हैं; शिक्षा, संचार, परिवहन, मनोरंजन, कपडे, खाद्य & पेय पदार्थ, आवास और चिकित्सा खर्च।

    • CPI-केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय) प्रकाशित करता है
    • CPI-वस्तुओं और सेवाओं दोनों का मूल्य नापा जाता है
    • CPI-सबसे आखिरी चरण के भुगतान के आधार पर  मुद्रास्फीति की  गणना  की जाती है
    • CPI-उपभोक्ता भुगतान को ध्यान में रखा जाता है
    • CPI-448 (ग्रामीण) & 460 (शहरी) वस्तुओं का मूल्य गिना जाता है
    • CPI- शिक्षा_संचार_परिवहन_मनोरंजन_कपड़े_खाद्य और पेय पदार्थ_आवास और चिकित्सा खर्च प्रकार की वस्तुएं शामिल की जातीं हैं
    • CPI- 2012 आधार वर्ष हैं अमेरिका सहित विश्व के 157 देशों में इस्तेमाल  किया जाता है

    थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale price index – WPI) 

    थोक मूल्य सूचकांक (WPI) की गणना थोक बाजार में उत्पादकों और बड़े व्यापारियों द्वारा किये गए भुगतान के आधार पर की जाती है। इसमें उत्पादन के प्रथम चरण में अदा किये गए मूल्यों की गणना की जाती है भारत में मुद्रा स्फीति की गणना इसी सूचकांक के आधार पर की जाती है

    • WPI-आर्थिक सलाहकार कार्यालय (वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय) प्रकाशित करता है
    • WPI-केवल वस्तुओं का मूल्य नापा जाता है
    • WPI-पहले चरण के भुगतान के आधार पर  मुद्रास्फीति की  गणना की जाती है
    • WPI-उत्पादक और थोक व्यापारी भुगतान को ध्यान में रखा जाता है
    • WPI-697 (प्राथमिक वस्तुएं, ईंधन और बिजली और विनिर्मित उत्पाद) वस्तुओं का मूल्य गिना जाता है
    • WPI-औद्योगिक वस्तुएं और मध्यवर्ती वस्तुएं जैसे खनिज, मशीनरी, बुनियादी धातु आदि प्रकार की वस्तुएं शामिल की जातीं हैं
    • WPI-2011-12 आधार वर्ष हैं भारत सहित केवल कुछ देशों में इस्तेमाल  किया जाता है
    • WPI-प्राथमिक वस्तुएं, ईंधन और बिजली (साप्ताहिक आधार पर), अन्य सभी वस्तुओं पर या ओवरआल (एक महीने में) आंकड़े प्रकाशित किये जाते हैं

    किन्स का मुद्रा स्फीति सम्बंधि दृष्टिकोण (Keane’s inflationary attitude)

    1. मुद्रा स्फीति हमेशा एक पूर्णरोजगारीय प्रतिभास है अर्थात पूर्ण रोजगार की प्राप्ति के बाद ,उत्पादन में वृद्धि नही सम्भव होगी,व्यय तथा मांग में वृद्धि मूल्य स्तर में वृद्धि लाएगी,पूर्ण रोजगार के पहले मूल्य की वृद्धि स्फीतिक नही होगी।
    2. किन्स का मुद्रा स्फीति का सिद्धांत एक गैर-मौद्रिक सिद्धान्त है, यह स्फीति की शुरूआत या बने रहने के सम्बन्ध में मुद्रा की पूर्ति की वृद्धि को कोई स्थान नही देता।
    3. किन्स ने अर्थव्यवस्था में व्यय प्रवाह तथा समग्र मांग की वृद्धि को मूल्य स्तर में वृद्धि तथा मुद्रा स्फीति के कारण के रूप में स्वीकार किया
    4. स्फीति अंतराल (inflationary Gap) की अवधारणा का प्रतिपादन किन्स ने किया।
    5. जान मेनार्ड किन्स ने स्फीति की धारणा की व्याख्या अपनी 1940 में प्रकाशित पुस्तक ‘हाउ टू पे फार वार’ में की।
    6. उल्लेखनीय है कि किन्स की जेनरेल थियरी आन एम्प्लायमेंट, इंटरेस्ट एंड मनी, (1936) के पूर्व किन्स ने ट्रेक्ट ऑन मांटेरी रिफॉर्म (1923) ,ट्रेटजी आन मनी (1930) इकोनॉमिक कानसीक्वेंसेज आफ मिस्टर चर्चिल (1925) में प्रकाशित की ।

    मुद्रास्फीति के कारण (Reason of Inflation)

    भारत में प्रमुख रूप से मुद्रास्फीति के दो कारण-

    1. लागत जनित मुद्रास्फीति
    2. मांग जनित मुद्रास्फीति

    1. लागत जनित मुद्रास्फीति – 

    इस प्रकार की मुद्रास्फीति साधनों की लागतों में वृद्धि के कारण उत्पन्न होती है। परम्परागत आर्थिक सिद्धांत के अनुसार उत्पादन के तीन साधन-भूमि, श्रम और पूंजी होते हैं, जबकि वर्तमान समय में उत्पादन के बहुत सारे साधन प्रयुक्त होते हैं, जैसे:- मकान-किराया, बिजली, कच्चा माल, तेल एवं स्टील इत्यादि।

    इनमें से एक या एक से अधिक साधनों की कीमत वृद्धि से उत्पादक वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतें बढ़ा देते हैं, इस प्रक्रिया को लागत जनित मुद्रास्फीति कहते हैं। उत्पादन लागत बढ़ने के कुछ महत्त्वपूर्ण कारक इस प्रकार हैं-

    • उत्पादन एवं पूर्ति के उतार चढ़ाव।
    • करों में वृद्धि , जिससे लागतें एवं कीमतें बढ़ जाती है।
    • प्रशासनिक कीमतों में परिवर्तन।
    • तेल की कीमतें में वृद्धि एवं वैश्विक मुद्रास्फीति।

    2. माँग जनित मुद्रास्फीति-

    मांग जनित मुद्रास्फीति के अन्तर्गत साधन लागत एक समान रहती है जबकि उपभोक्ताओं द्वारा वस्तुओं की मांग में सापेक्षिक रूप से पूर्ति से अधिकता होने से विक्रेता या उत्पादक कीमतें बढ़ा देते हैं। इस स्थिति में मांग में वृद्धि हो जाती है, परन्तु आपूर्ति स्थिर रहती है।

    पिछले कुछ दशकों में मांग में तीव्र वृद्धि के प्रमुख कारक इस प्रकार से है- 

    • मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि
    • सरकारी व्यय में तीव्र वृद्धि *
    • जनसंख्या में तीव्र वृद्धि
    • काले धन में तीव्र वृद्धि इत्यादि

    मुद्रास्फीति के प्रभाव (Influence of Inflation)

    भारतीय अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति का प्रभाव मुख्यतया उत्पादन एवं आय के वितरण पर पड़ता है-

    (1) उत्पादन पर प्रभाव – 

    • मुद्रास्फीति की तीव्र गति से कुछ महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता वस्तुओं जैसे कपड़ा इत्यादि की कीमतें बढ़ने से इनकी मांग कम हो जाती है।विशेष तौर पर गरीब आम जनता की पहुँच से बाहर हो जाती हैं।
    • इसी प्रकार अनिवार्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ने से अन्य वस्तुओं पर व्यय कम हो जाता है।
    •  जिससे उत्पादन प्रभावित होता है, जिससे रोजगार के अवसर एवं मजदूरी की दर कम हो जाती है, हड़ताल एवं तालाबन्दी की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं।
    • इसका प्रभाव वास्तविक निवेश पर प्रतिकूल पड़ता है, जिससे आर्थिक मंदी की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

    (2) आय के वितरण पर प्रभाव –

    • मुद्रास्फीति की तीव्र वृद्धि से इसका प्रभाव मजदूरों एवं वेतनभोगी कर्मचारियों पर ऋणात्मक पड़ता है क्योंकि उनका वेतन स्थिर होता है।
    • जबकि व्यवसायी मुद्रास्फीति की स्थिति में अधिक लाभ अर्जित करते हैं।
    • इस प्रकार आय का वितरण धनी व्यक्ति के पक्ष में अधिक होता है।
    • मुद्रास्फीति की तीव्र वृद्धि में निर्धन एवं धनी व्यक्ति के बीच की असमानता बढ़ती जाती है। अर्थात धनी व्यक्ति अधिक धनी एवं निर्धन व्यक्ति , अधिक निर्धन हो जाता है।

    मुद्रास्फीति को रोकने के उपाय (Measures to Stop Inflation)

    किसी अर्थव्यवस्था में इन्फ्लेशन यानी मुद्रास्फीति का महत्त्व रोज़गार सृजन जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों से भी अधिक है, क्योंकि किसी के पास रोज़गार हो या न हो, मुद्रास्फीति सबको प्रभावित करती है। पिछले माह ( April 2018 ) मुद्रास्फीति की दर 1.5 प्रतिशत रही थी। अब जब मुद्रास्फीति कम हो रही है तो रेपो रेट में कटौती होनी चाहिये, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। दरअसल, रेपो रेट में कटौती न होने के कई कारण हैं।

    मुद्रास्फीति और इसे नियंत्रण में रखने के उपाय

    किसी अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति के अधिक होने का मतलब है आवश्यक चीज़ों के दामों में बढ़ोतरी।  यह इस बात का संकेत देता है कि महंगाई तेज़ी से बढ़ रही है। बढ़ती हुई मंहगाई को नियंत्रित करने के लिये सरकार और रिज़र्व बैंक समय-समय पर कुछ ऐसे उपाय करते हैं जिससे मुद्रास्फीति की दर को निम्न स्तर पर लाया जा सके।

    मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिये मुख्य रूप से दो तरीकों को अपनाया जाता है:-

    1. मौद्रिक नीति।
    2. राजकोषीय नीति।

    मौद्रिक नीति – मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की सर्वाधिक प्रचलित नीति है।  मौद्रिक नीति के ज़रिये मुद्रास्फीति में कमी लाने के लिये मुख्यतः तीन उपाय किये जाते हैं:–

    • बैंक दर नीति
    • कैश रिज़र्व रेश्यो (सीआरआर)
    • ओपन मार्केट ऑपरेशन्स

    राजकोषीय नीति- मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के राजकोषीय नीतियों में शामिल है:-

    • कराधान
    • सरकारी खर्चा
    • पब्लिक बॉरोइंग
    • सरकार द्वारा आवश्यक वस्तुओं जैसे दालें, अनाज और तेल आदि के निर्यात पर प्रतिबंध लगा देना।
    • कालाबाज़ारी रोकना भी राजकोषीय नीतियों का हिस्सा हैं।

    Imp facts – मौद्रिक नीति में सबसे महत्त्वपूर्ण है बैंक दर नीति।  यदि आरबीआई चाहता है कि बाज़ार में पैसे की आपूर्ति और तरलता बढ़े तो वह बैंक रेट को कम करेगा, वहीं यदि वह चाहता है कि बाज़ार में पैसे की आपूर्ति और तरलता कम हो तो वह बैंक रेट को बढ़ाएगा।

    मुद्रास्फीति बढ़ने के दौरान केन्द्रीय बैंक सामान्यतः रेपो रेट बढ़ाएगा और मुद्रास्फीति के कम होने के दौरान कम कर देगा।

    रेपो रेट और मुद्रास्फीति में संबंध (Relationship between repo rate and inflation)

    बैंकों को अपने काम-काज़ के लिये अक्सर बड़ी रकम की ज़रूरत होती है। बैंक इसके लिये आरबीआई से अल्पकाल के लिये कर्ज़ मांगते हैं और इस कर्ज़ पर रिज़र्व बैंक को उन्हें जिस दर से ब्याज देना पड़ता है, उसे ही रेपो रेट कहते हैं। रेपो रेट कम होने से बैंकों के लिये रिज़र्व बैंक से कर्ज़ लेना सस्ता हो जाता है और तभी बैंक ब्याज दरों में भी कटौती करते हैं, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा रकम कर्ज़ के तौर पर दी जा सके।

    मुद्रास्फीति बढ़ने का एक मतलब यह भी है कि वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में वृद्धि के कारण, बढ़ी हुई क्रय शक्ति के बावजूद लोग पहले की तुलना में वर्तमान में कम वस्तुओं एवं सेवाओं का उपभोग कर पा रहें हैं। आरबीआई का कार्य यह है कि वह बढ़ती हुई मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखने के लिये बाज़ार से पैसे को अपनी तरफ खींच ले।

    अतः आरबीआई रेपो रेट में बढ़ोतरी कर देता है, ताकि बैंकों के लिये कर्ज़ लेना महँगा हो जाए और वे अपने बैंक दरों को बढ़ा दे जिससे कि लोग कर्ज़ न ले सकें।

    पिछले कुछ समय से मुद्रास्फीति में गिरावट देखी जा रही है फिर भी आरबीआई रेपो रेट में परिवर्तन के लिये तैयार नहीं दिख रहा है। दरों में कटौती नहीं करना उचित क्यों

    • जीएसटी लागू होने के बाद सेवा क्षेत्र के लिये 18 प्रतिशत का स्लैब तय किया गया है, जो कि पहले 15 प्रतिशत था।
    • 7वें वेतन आयोग के भत्ते लागू हो जाने के बाद उपभोक्ता की क्रय शक्ति में वृद्धि देखने को मिलेगी।
    • दरों में कटौती करने को उचित नहीं कहा जा सकता है।
    • उच्च दरों के कारण निवेशकों को कर्ज़ नहीं मिल पा रहा है और इससे निवेश भी प्रभावित हो रहा है।
    • मुद्रास्फीति की दर में जो यह गिरावट देखने को मिल रही है वह खाद्य वस्तुओं के मूल्यों में कमी के कारण है और इस बात कि कोई गारंटी नहीं है कि मूल्यों में यह गिरावट बनी ही रहेगी।
    • खाद्य वस्तुओं के मूल्य में त्वरित परिवर्तन की आशंका लगातार बनी रहती है।

    मान लिया जाए कि खाद्य वस्तुओं एवं कच्चे तेल के मूल्यों में कमी के आधार पर मुद्रास्फीति में आई कमी को ध्यान में रखकर केन्द्रीय बैंक द्वारा दरों में कटौती कर दी जाती है और तभी बाढ़ या सूखे जैसी प्राकृतिक आपदा के कारण खाद्य वस्तुओं के मूल्यों में फिर से उछाल आ जाता है या किन्हीं परिस्थितियों में कच्चे तेल के दामों में वृद्धि होती है तो ऐसी स्थिति में दरों में साप्ताहिक या अर्द्धमासिक परिवर्तन की ज़रूरत होगी, जिसे व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता।

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