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    Home»हिंदी Hindi»सद्गति: मुंशी प्रेमचंद की कहानी, समीक्षा, सद्गति का अर्थ हिंदी में
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    सद्गति: मुंशी प्रेमचंद की कहानी, समीक्षा, सद्गति का अर्थ हिंदी में

    By NARESH BHABLAFebruary 2, 2022Updated:May 25, 2023No Comments21 Mins Read
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    सद्गति: मुंशी प्रेमचंद की कहानी, समीक्षा, सद्गति का अर्थ हिंदी में :- हमने इस लेख में सद्गति कहानी का समीक्षा, सद्गति’ कहानी का मूल्यांकन, सद्गति’ कहानी की आलोचना, सद्गति कहानी की विशेषता, सद्गति कहानी में किस विमर्श को दिखाया गया है।, सद्गति कहानी के लेखक कौन है, सद्गति कहानी का प्रकाशन वर्ष, सद्गति का अर्थ, प्रेमचंद की कहानी का सद्गति का सारांश, सद्गति कहानी में नीहित लेख का उद्देश्य क्या है, इत्यादि पर चर्चा की है इसलिए आप अंत तक जरूर पढ़ें।

    Page Contents

    • सद्गति: मुंशी प्रेमचंद की कहानी, समीक्षा, सद्गति का अर्थ हिंदी में
      • सद्गति
    • सद्गति कहानी की समीक्षा
      • सद्गति कहानी में निहित लेखक का उद्देश्य क्या है?
      • सद्गति कहानी का विद्रोही पात्र कौन सा है?
      • दुःखी चमार को चिलम और तंबाकू कैसे मिल जाता है?
      • दुख कहानी के मुख्य पात्र का नाम क्या है?
      • सद्गति किसकी रचना है?
      • दुखी चमार की पत्नी का नाम क्या है?
      • दुख का अधिकार कहानी के लेखक का नाम क्या है?
      • पाठ्यक्रम में प्रेमचंद के कितने निबंध निर्धारित हैं?

    सद्गति: मुंशी प्रेमचंद की कहानी, समीक्षा, सद्गति का अर्थ हिंदी में

    सद्गति

    दुखी चमार द्वार पर झाडू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया, घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फुर्सत पा चुके थे, तो चमारिन ने कहा, ‘तो जाके पंडित बाबा से कह आओ न। ऐसा न हो कहीं चले जाएं जाएं।’

    दुखी -‘ हाँ जाता हूँ, लेकिन यह तो सोच, बैठेंगे किस चीज पर ?

    ’झुरिया -‘ क़हीं से खटिया न मिल जाएगी ? ठकुराने से माँग लाना।’


    दुखी -‘ तू तो कभी-कभी ऐसी बात कह देती है कि देह जल जाती है। ठकुरानेवाले मुझे खटिया देंगे ! आग तक तो घर से निकलती नहीं, खटिया देंगे ! कैथाने में जाकर एक लोटा पानी माँगूँ तो न मिले। भला खटिया कौन देगा ! हमारे उपले, सेंठे, भूसा, लकड़ी थोड़े ही हैं कि जो चाहे उठा ले जाएं। ले अपनी खटोली धोकर रख दे। गरमी के तो दिन हैं। उनके आते-आते सूख जाएगी।’


    झुरिया -‘वह हमारी खटोली पर बैठेंगे नहीं। देखते नहीं कितने नेम-धरम से रहते हैं।’दुखी ने जरा चिंतित होकर कहा, ‘हाँ, यह बात तो है। महुए के पत्ते तोड़कर एक पत्तल बना लूँ तो ठीक हो जाए। पत्तल में बड़े-बड़े आदमी खाते हैं। वह पवित्तर है। ला तो डंडा, पत्ते तोड़ लूँ।’झुरिया -‘पत्तल मैं बना लूँगी, तुम जाओ। लेकिन हाँ, उन्हें सीधा भी तो देना होगा। अपनी थाली में रख दूँ ?’

    दुखी -‘क़हीं ऐसा गजब न करना, नहीं तो सीधा भी जाए और थाली भी फूटे ! बाबा थाली उठाकर पटक देंगे। उनको बड़ी जल्दी विरोध चढ़ आता है। किरोध में पंडिताइन तक को छोड़ते नहीं, लड़के को ऐसा पीटा कि आज तक टूटा हाथ लिये फिरता है। पत्तल में सीधा भी देना, हाँ। मुदा तू छूना मत।’


    झूरी -‘ गोंड़ की लड़की को लेकर साह की दूकान से सब चीजें ले आना। सीधा भरपूर हो। सेर भर आटा, आधा सेर चावल, पाव भर दाल, आधा पाव घी, नोन, हल्दी और पत्तल में एक किनारे चार आने पैसे रख देना। गोंड़ की लड़की न मिले तो भुर्जिन के हाथ-पैर जोड़कर ले जाना। तू कुछ मत छूना, नहीं गजब हो जाएगा।’

    इन बातों की ताकीद करके दुखी ने लकड़ी उठाई और घास का एक बड़ा-सा गट्ठा लेकर पंडितजी से अर्ज करने चला। खाली हाथ बाबाजी की सेवा में कैसे जाता। नजराने के लिए उसके पास घास के सिवाय और क्या था। उसे खाली देखकर तो बाबा दूर ही से दुत्कारते। पं. घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे। नींद खुलते ही ईशोपासन में लग जाते।


    मुँह-हाथ धोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू होती, जिसका पहला भाग भंग की तैयारी थी। उसके बाद आधा घण्टे तक चन्दन रगड़ते, फिर आईने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। चन्दन की दो रेखाओं के बीच में लाल रोरी की बिन्दी होती थी। फिर छाती पर, बाहों पर चन्दन कीगोल-गोल मुद्रिकाएं बनाते।


    फिर ठाकुरजी की मूर्ति निकालकर उसे नहलाते, चन्दन लगाते, फूल चढ़ाते, आरती करते, घंटी बजाते। दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भंग छानकर बाहर आते। तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जाते ! ईशोपासन का तत्काल फल मिल जाता। वही उनकी खेती थी।

    आज वह पूजन-गृह से निकले, तो देखा दुखी चमार घास का एक गट्ठा लिये बैठा है। दुखी उन्हें देखते ही उठ खड़ा हुआ और उन्हें साष्टांग दंडवत् करके हाथ बाँधकर खड़ा हो गया। यह तेजस्वी मूर्ति देखकर उसका ह्रदय श्रृद्धा से परिपूर्ण हो गया ! कितनी दिव्य मूर्ति थी। छोटा-सा गोल-मटोल आदमी, चिकना सिर, फूले गाल, ब्रह्मतेज से प्रदीप्त आँखें।


    रोरी और चंदन देवताओं की प्रतिभा प्रदान कर रही थी। दुखी को देखकर श्रीमुख से बोले – ‘आज कैसे चला रे दुखिया ?’

    दुखी -‘ने सिर झुकाकर कहा, बिटिया की सगाई कर रहा हूँ महाराज। कुछ साइत-सगुन विचारना है। कब मर्जी होगी ?’

    घासी -‘आज मुझे छुट्टी नहीं। हाँ साँझ तक आ जाऊँगा।’

    दुखी -‘नहीं महाराज, जल्दी मर्जी हो जाए। सब सामान ठीक कर आया हूँ। यह घास कहाँ रख दूँ ?


    घासी -‘इस गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर द्वार तो साफ कर दे। यह बैठक भी कई दिन से लीपी नहीं गई। उसे भी गोबर से लीप दे। तब तक मैं भोजन कर लूँ। फिर जरा आराम करके चलूँगा। हाँ, यह लकड़ी भी चीर देना। खलिहान में चार खाँची भूसा पड़ा है। उसे भी उठा लाना और भुसौली में रख देना।’

    दुखी फौरन हुक्म की तामील करने लगा। द्वार पर झाडू लगाई, बैठक को गोबर से लीपा। तब बारह बज गये। पंडितजी भोजन करने चले गये। दुखी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। उसे भी जोर की भूख लगी; पर वहाँ खाने को क्या धारा था। घर यहाँ से मील भर था। वहाँ खाने चला जाए, तो पंडितजी बिगड़ जाएं। बेचारे ने भूख दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा।


    लकड़ी की मोटी-सी गाँठ थी; जिस पर पहले कितने ही भक्तों ने अपना जोर आजमा लिया था। वह उसी दम-खम के साथ लोहे से लोहा लेने के लिए तैयार थी। दुखी घास छीलकर बाजार ले जाता था। लकड़ी चीरने का उसे अभ्यास न था। घास उसके खुरपे के सामने सिर झुका देती थी।

    यहाँ कस-कसकर कुल्हाड़ी का भरपूर हाथ लगाता; पर उस गाँठ पर निशान तक न पड़ता था। कुल्हाड़ी उचट जाती। पसीने में तर था, हाँफता था, थककर बैठ जाता था, फिर उठता था। हाथ उठाये न उठते थे, पाँव काँप रहे थे, कमर न सीधी होती थी, आँखों तले अँधेरा हो रहा था, सिर में चक्कर आ रहे थे, तितलियाँ उड़ रही थीं, फिर भी अपना काम किये जाता था। अगर एक चिलम तम्बाकू पीने को मिल जाती, तो शायद कुछ ताकत आती।

    उसने सोचा, यहाँ चिलम और तम्बाकू कहाँ मिलेगी। बाह्मनों का पूरा है। बाह्मन लोग हम नीच जातों की तरह तम्बाकू थोड़े ही पीते हैं। सहसा उसे याद आया कि गाँव में एक गोंड़ भी रहता है। उसके यहाँ जरूर चिलम-तमाखू होगी। तुरत उसके घर दौड़ा। खैर मेहनत सुफल हुई।


    उसने तमाखू भी दी और चिलम भी दी; पर आग वहाँ न थी। दुखी ने कहा, आग की चिन्ता न करो भाई। मैं जाता हूँ, पंडितजी के घर से आग माँग लूँगा। वहाँ तो अभी रसोई बन रही थी। यह कहता हुआ वह दोनों चीज़ें लेकर चला आया और पंडितजी के घर में बरौठे के द्वार पर खड़ा होकर बोला, ‘मालिक, रचिके आग मिल जाए, तो चिलम पी लें।’


    पंडितजी भोजन कर रहे थे। पंडिताइन ने पूछा, ‘यह कौन आदमी आग माँग रहा है ?’

    पंडित -‘अरे वही ससुरा दुखिया चमार है। कहा, है थोड़ी-सी लकड़ी चीर दे। आग तो है, दे दो।’

    पंडिताइन ने भॅवें चढ़ाकर कहा, ‘तुम्हें तो जैसे पोथी-पत्रो के फेर में धरम-करम किसी बात की सुधि ही नहीं रही। चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुँह उठाये घर में चला आये। हिन्दू का घर न हुआ, कोई सराय हुई। कह दो दाढ़ीजार से चला जाए, नहीं तो इस लुआठे से मुँह झुलस दूँगी। आग माँगने चले हैं।’


    पंडितजी ने उन्हें समझाकर कहा, ‘भीतर आ गया, तो क्या हुआ। तुम्हारी कोई चीज तो नहीं छुई। धरती पवित्र है। जरा-सी आग दे क्यों नहीं देती, काम तो हमारा ही कर रहा है। कोई लोनिया यही लकड़ी फाड़ता, तो


    कम-से-कम चार आने लेता।’


    पंडिताइन ने गरजकर कहा, ‘वह घर में आया क्यों !’

    पंडित ने हारकर कहा, ‘ससुरे का अभाग था और क्या !’

    पंडिताइन–‘अच्छा, इस बखत तो आग दिये देती हूँ, लेकिन फिर जो इस तरह घर में आयेगा, तो उसका मुँह ही जला दूँगी।’

    दुखी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। पछता रहा था, नाहक आया। सच तो कहती हैं।

    पंडित के घर में चमार कैसे चला आये। बड़े पवित्तर होते हैं यह लोग, तभी तो संसार पूजता है, तभी तो इतना मान है। भर-चमार थोड़े ही हैं। इसी गाँव में बूढ़ा हो गया; मगर मुझे इतनी अकल भी न आई। इसलिए जब पंडिताइन आग लेकर निकलीं, तो वह मानो स्वर्ग का वरदान पा गया।


    दोनों हाथ जोड़कर जमीन पर माथा टेकता हुआ बोला, ‘पड़ाइन माता, मुझसे बड़ी भूल हुई कि घर में चला आया। चमार की अकल ही तो ठहरी। इतने मूरख न होते, तो लात क्यों खाते।’पंडिताइन चिमटे से पकड़कर आग लाई थीं। पाँच हाथ की दूरी से घूँघट की आड़ से दुखी की तरफ आग फेंकी। आग की बड़ी-सी चिनगारी दुखी के सिर पर पड़ गयी।


    जल्दी से पीछे हटकर सिर के झोटे देने लगा। उसने मन में कहा, यह एक पवित्तर बाह्मन के घर को अपवित्तर करने का फल है। भगवान ने कितनी जल्दी फल दे दिया। इसी से तो संसार पंडितों से डरता है। और सबके रुपये मारे जाते हैं बाह्मन के रुपये भला कोई मार तो ले ! घर भर का सत्यानाश हो जाए, पाँव गल-गलकर गिरने लगे। बाहर आकर उसने चिलम पी और फिर कुल्हाड़ी लेकर जुट गया।

    खट-खट की आवाजें आने लगीं। उस पर आग पड़ गई, तो पंडिताइन को उस पर कुछ दया आ गई। पंडितजी भोजन करके उठे, तो बोलीं -‘इस चमरवा को भी कुछ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर रहा है। भूखा होगा।’


    पंडितजी ने इस प्रस्ताव को व्यावहारिक क्षेत्र से दूर समझकर पूछा, ‘रोटियाँ हैं ?

    ’पंडिताइन -‘दो-चार बच जाएंगी।’

    पंडित -‘दो-चार रोटियों में क्या होगा ? चमार है, कम से कम सेर भर चढ़ा जाएगा।

    ’पंडिताइन कानों पर हाथ रखकर बोलीं, ‘अरे बाप रे ! सेर भर ! तो फिर रहने दो।’


    पंडितजी ने अब शेर बनकर कहा, ‘क़ुछ भूसी-चोकर हो तो आटे में मिलाकर दो ठो लिट्टा ठोंक दो। साले का पेट भर जाएगा। पतली रोटियों से इन नीचों का पेट नहीं भरता। इन्हें तो जुआर का लिट्टा चाहिए।’

    पंडिताइन ने कहा, ‘अब जाने भी दो, धूप में कौन मरे।

    ’दुखी ने चिलम पीकर फिर कुल्हाड़ी सँभाली। दम लेने से जरा हाथों में ताकत आ गई थी। कोई आधा घण्टे तक फिर कुल्हाड़ी चलाता रहा। फिर बेदम होकर वहीं सिर पकड़ के बैठ गया। इतने में वही गोंड़ आ गया। बोला, ‘क्यों जान देते हो बूढ़े दादा, तुम्हारे फाड़े यह गाँठ न फटेगी। नाहक हलाकान होते हो।’दुखी ने माथे का पसीना पोंछकर कहा, ‘अभी गाड़ी भर भूसा ढोना है भाई !’


    गोंड़ -‘क़ुछ खाने को मिला कि काम ही कराना जानते हैं। जाके माँगते क्यों नहीं ?’दुखी -‘क़ैसी बात करते हो चिखुरी, बाह्मन की रोटी हमको पचेगी !’


    गोंड़ -‘पचने को पच जाएगी, पहले मिले तो। मूँछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोये, तुम्हें लकड़ी फाड़ने का हुक्म लगा दिया। जमींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी बहुत मजूरी देता है। यह उनसे भी बढ़ गये, उस पर धर्मात्मा बनते हैं।’

    दुखी -‘धीरे-धीरे बोलो भाई, कहीं सुन लें तो आफत आ जाए।

    ’यह कहकर दुखी फिर सँभल पड़ा और कुल्हाड़ी की चोट मारने लगा। चिखुरी को उस पर दया आई। आकर कुल्हाड़ी उसके हाथ से छीन ली और कोई आधा घंटे खूब कस-कसकर कुल्हाड़ी चलाई; पर गाँठ में एक दरार भी न पड़ी। तब उसने कुल्हाड़ी फेंक दी और यह कहकर चला गया तुम्हारे फाड़े यह न फटेगी, जान भले निकल जाए।’


    दुखी सोचने लगा, बाबा ने यह गाँठ कहाँ रख छोड़ी थी कि फाड़े नहीं फटती। कहीं दरार तक तो नहीं पड़ती। मैं कब तक इसे चीरता रहूँगा। अभी घर पर सौ काम पड़े हैं। कार-परोजन का घर है, एक-न-एक चीज घटी ही रहती है; पर इन्हें इसकी क्या चिंता। चलूँ जब तक भूसा ही उठा लाऊँ। कह दूँगा, बाबा, आज तो लकड़ी नहीं फटी, कल आकर फाड़ दूँगा।


    उसने झौवा उठाया और भूसा ढोने लगा। खलिहान यहाँ से दो फरलांग से कम न था। अगर झौवा खूब भर-भर कर लाता तो काम जल्द खत्म हो जाता; फि र झौवे को उठाता कौन। अकेले भरा हुआ झौवा उससे न उठ सकता था। इसलिए थोड़ा-थोड़ा लाता था। चार बजे कहीं भूसा खत्म हुआ।

    पंडितजी की नींद भी खुली। मुँह-हाथ धोया, पान खाया और बाहर निकले। देखा, तो दुखी झौवा सिर पर रखे सो रहा है। जोर से बोले -‘अरे, दुखिया तू सो रहा है ? लकड़ी तो अभी ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। इतनी देर तू करता क्या रहा ? मुट्ठी भर भूसा ढोने में संझा कर दी ! उस पर सो रहा है। उठा ले कुल्हाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल।


    तुझसे जरा-सी लकड़ी नहीं फटती। फिर साइत भी वैसी ही निकलेगी, मुझे दोष मत देना ! इसी से कहा, है कि नीच के घर में खाने को हुआ और उसकी आँख बदली।’


    दुखी ने फिर कुल्हाड़ी उठाई। जो बातें पहले से सोच रखी थीं, वह सब भूल गईं। पेट पीठ में धॉसा जाता था, आज सबेरे जलपान तक न किया था। अवकाश ही न मिला। उठना ही पहाड़ मालूम होता था। जी डूबा जाता था, पर दिल को समझाकर उठा।

    पंडित हैं, कहीं साइत ठीक न विचारें, तो फिर सत्यानाश ही हो जाए। जभी तो संसार में इतना मान है। साइत ही का तो सब खेल है। जिसे चाहे बिगाड़ दें। पंडितजी गाँठ के पास आकर खड़े हो गये और बढ़ावा देने लगे हाँ, मार कसके, और मार क़सके मार अबे जोर से मार तेरे हाथ में तो जैसे दम ही नहीं है लगा कसके, खड़ा सोचने क्या लगता है हाँ बस फटा ही चाहती है ! दे उसी दरार में ! दुखी अपने होश में न था।


    न-जाने कौन-सी गुप्तशक्ति उसके हाथों को चला रही थी। वह थकान, भूख, कमजोरी सब मानो भाग गई। उसे अपने बाहुबल पर स्वयं आश्चर्य हो रहा था। एक-एक चोट वज्र की तरह पड़ती थी। आधा घण्टे तक वह इसी उन्माद की दशा में हाथ चलाता रहा, यहाँ तक कि लकड़ी बीच से फट गई और दुखी के हाथ से कुल्हाड़ी छूटकर गिर पड़ी।


    इसके साथ वह भी चक्कर खाकर गिर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका हुआ शरीर जवाब दे गया।


    पंडितजी ने पुकारा, ‘उठके दो-चार हाथ और लगा दे। पतली-पतली चैलियाँ हो जाएं। दुखी न उठा। पंडितजी ने अब उसे दिक करना उचित न समझा। भीतर जाकर बूटी छानी, शौच गये, स्नान किया और पंडिताई बाना पहनकर बाहर निकले ! दुखी अभी तक वहीं पड़ा हुआ था। जोर से पुकारा -‘अरे क्या पड़े ही रहोगे दुखी, चलो तुम्हारे ही घर चल रहा हूँ। सब सामान ठीक-ठीक है न ? दुखी फिर भी न उठा।’

    अब पंडितजी को कुछ शंका हुई। पास जाकर देखा, तो दुखी अकड़ा पड़ा हुआ था। बदहवास होकर भागे

    और पंडिताइन से बोले, ‘दुखिया तो जैसे मर गया।

    ’पंडिताइन हकबकाकर बोलीं-‘वह तो अभी लकड़ी चीर रहा था न ?

    ’पंडित -‘हाँ लकड़ी चीरते-चीरते मर गया। अब क्या होगा ?

    ’पंडिताइन ने शान्त होकर कहा, ‘होगा क्या, चमरौने में कहला भेजो मुर्दा उठा ले जाएं।’


    एक क्षण में गाँव भर में खबर हो गई। पूरे में ब्राह्मनों की ही बस्ती थी। केवल एक घर गोंड़ का था। लोगों ने इधर का रास्ता छोड़ दिया। कुएं का रास्ता उधर ही से था, पानी कैसे भरा जाए ! चमार की लाश के पास से होकर पानी भरने कौन जाए। एक बुढ़िया ने पण्डितजी से कहा, अब मुर्दा फेंकवाते क्यों नहीं ? कोई गाँव में पानी पीयेगा या नहीं।

    इधर गोंड़ ने चमरौने में जाकर सबसे कह दिया ख़बरदार, मुर्दा उठाने मत जाना। अभी पुलिस की तहकीकात होगी। दिल्लगी है कि एक गरीब की जान ले ली। पंडितजी होंगे, तो अपने घर के होंगे। लाश उठाओगे तो तुम भी पकड़ जाओगे।


    इसके बाद ही पंडितजी पहुँचे; पर चमरौने का कोई आदमी लाश उठा लाने को तैयार न हुआ, हाँ दुखी की स्त्री और कन्या दोनों हाय-हाय करती वहाँ चलीं और पंडितजी के द्वार पर आकर सिर पीट-पीटकर रोने लगीं। उनके साथ दस-पाँच और चमारिनें थीं।


    कोई रोती थी, कोई समझाती थी, पर चमार एक भी न था। पण्डितजी ने चमारों को बहुत धामकाया, समझाया, मिन्नत की; पर चमारों के दिल पर पुलिस का रोब छाया हुआ था, एक भी न मिनका। आखिर निराश होकर लौट आये।

    आधी रात तक रोना-पीटना जारी रहा। देवताओं का सोना मुश्किल हो गया। पर लाश उठाने कोई चमार न आया और ब्राह्मन चमार की लाश कैसे उठाते ! भला ऐसा किसी शास्त्र-पुराण में लिखा है ? कहीं कोई दिखा दे। पंडिताइन ने झुँझलाकर कहा, ‘इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली। सभों का गला भी नहीं पकता। पंडित ने कहा, रोने दो चुड़ैलों को, कब तक रोयेंगी। जीता था, तो कोई बात न पूछता था। मर गया, तो कोलाहल मचाने के लिए सब की सब आ पहुँचीं।’


    पंडिताइन -‘चमार का रोना मनहूस है।

    ’पंडित -‘हाँ, बहुत मनहूस।

    ’पंडिताइन -‘अभी से दुर्गन्ध उठने लगी।

    ’पंडित -‘चमार था ससुरा कि नहीं। साध-असाध किसी का विचार है इन सबों को।

    ’पंडिताइन -‘इन सबों को घिन भी नहीं लगती।

    ’पंडित-‘ भ्रष्ट हैं सब।’


    रात तो किसी तरह कटी; मगर सबेरे भी कोई चमार न आया। चमारिनें भी रो-पीटकर चली गईं। दुर्गन्ध कुछ-कुछ फैलने लगी। पंडितजी ने एक रस्सी निकाली। उसका फन्दा बनाकर मुरदे के पैर में डाला और फन्दे को खींचकर कस दिया। अभी कुछ-कुछ धुँधलका था।

    पंडितजी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शुरू किया और गाँव के बाहर घसीट ले गये। वहाँ से आकर तुरन्त स्नान किया, दुर्गापाठ पढ़ा और घर में गंगाजल छिड़का।उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे। यही जीवन-पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।

    सद्गति कहानी की समीक्षा

    “सद्गति” मुंशी प्रेमचंद जी की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक है। इस कहानी में उन्होंने एक ब्राह्मण “घासीराम” द्वारा एक चमार “दुखी” पर धर्म के नाम पर किये गए अत्याचार को दिखाया है। दुखी अपनी बेटी की सगाई के लिए पण्डित जी से सगुन विचार करवाना चाहता है।


    उसके मन में पण्डित जी और उनकी श्रेष्ठ जाति के प्रति अगाध श्रद्धा और दिव्यता का भाव है। पण्डित जी सगुन विचार के लिए तैयार तो हो जाते हैं पर उससे पहले दुखी चमार से खूब बेगार काम करवाते हैं। बेचारा दुखी का घास काटने का काम था उसे कठोर लकड़ी फाड़ने का अनुभव नहीं था, पर पण्डित जी उससे जबर्दस्ती लकड़ी फड़वाते हैं।

    दुखी सुबह से बिना कुछ खाये भूखे पेट काम कर रहा है। उसने सोचा थोड़ा चिलम पी लूँ तो ताकत मिल जाये। चिलम के लिए उसके पास आग नहीं थी तो वो पण्डित जी से घर में आग माँगने घुस गया। पण्डिताइन इससे खुब नाराज हुईं और चिमटे से आग दुखी की तरफ फेंका।

    दुखी पड़ाइन माता के सम्मान में अपना माथा जमीन पर टेके हुए था, जिस कारण आग उसके माथे से सट गयी और उसका सर जल गया। इसके बाद भी दुखी नाराज नहीं होता बल्कि यही सोचता है कि देखो मैं पण्डित जी के घर में घुसकर जो उसे अपवित्र किया, भगवान ने उसका तत्काल फल दे दिया।

    पण्डित जी दिन में खाना खाकर सो जाते हैं, लेकिन दुखी से खाना के लिए पूछते तक नहीं हैं। दुखी खाली पेट सुबह से शाम तक काम करते-करते थकान, भूख, कमजोरी से चक्कर खाकर गिर के मर जाता है। पण्डित और पण्डिताइन उस बेचारे अभागे चमार के लाश के ऊपर भी दया नहीं करते हैं और उसके साथ बेरहमी से पेश आते हैं। प्रेमचंद जी पण्डित और पण्डिताइन सहित गाँव के सभी ब्राह्मणों को गरीब और पिछड़ी जातियों के प्रति असंवेदनशील साबित करने में पूरी तरह सफल रहे हैं।

    प्रेमचंद जी यही साबित करना चाह रहे हैं कि इस दुखी चमार का शोषण ब्राह्मण कर रहा है और इसे अपने शोषण का पता तक नहीं है। इसमें वर्ग चेतना का अभाव है। लेकिन उसी गाँव का गोंड़ जिसमें थोड़ी वर्ग चेतना है वो इसकी लकड़ी फाड़ने में भी मदद करता है और इसके मर जाने पर गाँव के लोगों को दुखी चमार के लाश को ब्राह्मण के दरवाजे से नहीं उठाने की अपील करता है। वो पुलिस से इसकी मृत्यु की जाँच करवाने के लिए गाँव वालों को तैयार करता है।



    लेकिन सवाल है कि ऐसे ब्राह्मण हैं कहाँ? मैंने अपनी पूरी जिन्दगी में आजतक एक भी ऐसा दुष्ट ब्राह्मण नहीं देखा जो किसी गरीब को बेगार कराके जान ले ले। मैं ये बिलकुल नहीं कहना चाह रहा हूँ कि इस देश में दलितों पर अत्याचार नहीं हुआ है। लेकिन प्रेमचंद का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण और उस समय के वामपंथ आन्दोलन से प्रभावित है।


    सज्जाद ज़हीर की प्रेरणा से भारत में लखनऊ में 1936 में पहली बार “प्रगतिशील लेखक संघ” का अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद ने ही की थी। ये साहित्यिक जगत में वामपंथ के प्रादुर्भाव का आगाज़ था। यही वो समय है जब साहित्य में प्रगतिवाद का आरम्भ हुआ, जिसकी सुगबुगाहट कुछ वर्ष पहले से ही अनेकों रचनाओं में दृष्टिगोचर होने लगी थी।


    मेरी बातों पर यकीन मत कीजिए। आप खुद इस कहानी को एकबार मेरी इस समीक्षा को पढ़ने के बाद पढ़िये। आपको समझ में आ जायेगा कि ये हिन्दुओं को दलितों से अलग बताने की साजिश आज की नहीं है। इसकी शुरुआत प्रेमचंद जैसे लेखकों की रचना में आज से अस्सी साल पहले दिखने लगे थें।


    इसी कहानी में दुखी चमार के पण्डित जी के घर में गलती से कदम रख देने पर, पण्डिताइन गुस्से में कहती है कि – “चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुँह उठाये घर में चला आये। हिन्दू का घर न हुआ, कोई सराय हुई।” ये पण्डिताइन के मुख से प्रेमचंद बोलवा रहे हैं। यहाँ स्पष्ट दिख रहा है कि प्रेमचंद हिन्दुओं और दलितों को अलग बता रहे हैं।


    जिस प्रेमचंद को महानायक बनाकर हमलोगों ने पूजा की, उसी ने बाद के उग्र दलित साहित्यकारों और वामपंथियों को भरपूर विनाशकारी कंटेंट उपलब्ध करा दिये थें जिसकी मदद से वे आज देश को इस अराजक स्थिति में पहुँचा चुके हैं।

    स्वतंत्र भारत के साहित्य से लेकर फिल्मों तक जो वामपंथियों का कब्जा है उसकी गहराई में आधारस्तम्भ प्रेमचंद जैसे लेखक हैं। हर समस्या की शुरूआत पंडित जवाहर लाल नेहरू से देखने के ट्रेंड में ये असली गुनाहगार बचकर निकल जा रहे हैं।

    बेशक नेहरू ने इन विचारों को प्रमोट किया, इसके वाहक बनें, लेकिन बौद्धिक और वैचारिक कंटेंट ऐसे लेखकों ने बहुत पहले से ही प्रोवाइड करना शुरू कर दिया।

    सद्गति कहानी में निहित लेखक का उद्देश्य क्या है?

    कहानी के आरम्भ में प्रेमचंद जी हमारा परिचय दुखी नाम के एक चमार से कराते हैं। दुखी अपने कामों में व्यस्त है और उसकी पत्नी झुरिया भी घर का काम काज निपटा रही है। … इसलिए इस कहानी को सद्गति नाम दिया गया है क्योंकि पूरे दिन के पश्चात् दुखी को अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से मुक्ति मिल जाती है।

    सद्गति कहानी का विद्रोही पात्र कौन सा है?

    दुखी चमार द्वार पर झाडू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया, घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फुर्सत पा चुके थे, तो चमारिन ने कहा, ‘तो जाके पंडित बाबा से कह आओ न। ऐसा न हो कहीं चले जाएं जाएं। ‘

    दुःखी चमार को चिलम और तंबाकू कैसे मिल जाता है?

    दुखी ने कहा, आग की चिन्ता न करो भाई। मैं जाता हूँ, पंडितजी के घर से आग माँग लूँगा। वहाँ तो अभी रसोई बन रही थी। यह कहता हुआ वह दोनों चीज़ें लेकर चला आया और पंडितजी के घर में बरौठे के द्वार पर खड़ा होकर बोला, ‘मालिक, रचिके आग मिल जाय, तो चिलम पी लें।

    दुख कहानी के मुख्य पात्र का नाम क्या है?

    इस कहानी के मुख्य पात्र राधेलाल इसी प्रवृत्तिवाले व्यक्ति है।

    सद्गति किसकी रचना है?

    सद्गति प्रेमचंद द्वारा लिखा गया नाटक संग्रह।

    दुखी चमार की पत्नी का नाम क्या है?

    दुखी अपने कामों में व्यस्त है और उसकी पत्नी झुरिया भी घर का काम काज निपटा रही है।

    दुख का अधिकार कहानी के लेखक का नाम क्या है?

    दुःख का अधिकार’ कहानी ‘यशपाल’ द्वारा रचित कहानी सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक है। इस कहानी में लेखक किसी के दुख के प्रति संवेदना व्यक्त करने के लिये लोगों की उस मनोवृत्ति का चित्रण जिसमें वो किसी की सामाजिक हैसियत के अनुसार किसी के दुख के प्रति संवेदना व्यक्त करते हैं।

    पाठ्यक्रम में प्रेमचंद के कितने निबंध निर्धारित हैं?

    उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की।

    यह भी पढ़ें 👇

    • हिंदी भाषा का विकास और उत्पत्ति कैसे हुई | हिंदी भाषा का इतिहास
    • वह तोड़ती पत्थर कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला- हिंदी कविता

    सद्गति: मुंशी प्रेमचंद की कहानी, समीक्षा,सद्गति का अर्थ – अगर आपको इस पोस्ट मे पसंद आई हो तो आप कृपया करके इसे अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करें। अगर आपका कोई सवाल या सुझाव है तो आप नीचे दिए गए Comment Box में जरुर लिखे । धन्यवाद !

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