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    Economy

    भारत में आर्थिक सुधारों का स्वरूप: Indian Economic

    By NARESH BHABLAJuly 10, 2020Updated:June 14, 2021No Comments10 Mins Read
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    भारत में आर्थिक सुधारों, भारत में आर्थिक सुधारों

    Page Contents

    • भारत में आर्थिक सुधारों का स्वरूप
        • औद्योगिक नीति (Industrial policy)
        • 1. वैश्वीकरण (Globalization)
        • 2. उदारीकरण (Liberalization)
        • 3. निजी करण (Personalization)
        • 4. बाजारीकरण
        • आर्थिक सुधारों के सकारात्मक परिणाम (Positive results of economic reforms)
        • सीमाएँ (Limitations)
        • आर्थिक सुधार की दिशा में 1991 से अब तक उठाये गये कुछ प्रमुख कदम निम्नलिखित हैं

    भारत में आर्थिक सुधारों का स्वरूप

    भारत ने 1980 के दशक में सुधारों को काफी मध्यम गति से लागू किया था, लेकिन 1991 के भुगतान संतुलन के संकट के बाद यह मुख्यधारा की नीति बन गई।  इसी साल सोवियत संघ के पतन ने भारतीय राजनीतिज्ञों को इस बात का अहसास करा दिया कि समाजवाद पर ओर जोर भारत को संकट से नहीं उबार पाएगा।

    चीन में देंग शिया ओपिंग के कामयाब बाजारोन्मुख सुधारों ने बता दिया था कि आर्थिक उदारीकरण के बेशुमार फायदे हैं। भारत की सुधार प्रक्रिया उत्तरोत्तर और अनियमित थी, लेकिन इसके संचित (cumulative) प्रभाव ने 2003-08 में भारत को चमत्कारी अर्थव्यवस्था बना दिया।

    सकल राष्ट्रीय उत्पाद की विकास दर 9 प्रतिशत और प्रति व्यक्ति वार्षिक सकल राष्ट्रीय उत्पाद विकास दर 7 प्रतिशत से ज्यादा हो गई। पी.वी. नरसिंह राव ने 1990 के दशक के आरम्भिक दिनों में सुधारवादी आर्थिक नीतियाँ लागू की।

    भारत में जुलाई 1991 से आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया अधिक स्पष्ट व अधिक व्यापक रूप से लागू की गई है । इसके तहत एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण) से जुड़े विभिन्न कार्यक्रम अपनाए गए हैं ।

    इससे पूर्व देश में लाइसेंस, परमिट तथा अभ्यंश (कोटा) राज फैला हुआ था । अनेक प्रकार के आर्थिक नियंत्रणों की भरमार थी । नौकरशाही का बोलबाला था । अर्थव्यवस्था में खुलेपन का अभाव था । उस समय विश्व में आर्थिक उदारीकरण की हवा बहने लगी थी ।

    भारत के समक्ष गम्भीर आर्थिक संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई थी, क्योंकि विदेशी विनिमय कोष की मात्रा केवल दो सप्ताह के आयात के लायक शेष रह गई थी, मुद्रास्फीति की दर बढ्‌कर दो अंकों में आ गई थी, बजट घाटा अत्यधिक हो गया था और भारत की आर्थिक साख को भारी खतरा उत्पन्न हो गया था ।

    ऐसी स्थिति में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उदारीकरण का नया मार्ग अपनाया था जिसके अन्तर्गत दो कार्यक्रम स्थिरीकरण कार्यक्रम और ढांचागत समायोजन कार्यक्रम अपनाए गए थे ।

    स्थिरीकरण कार्यक्रम अल्पकालीन होता है और इसका जोर मांग प्रबंधन पर होता है, ताकि मुद्रास्फीति व बजट-घाटे नियंत्रित किए जा सकें । ढाचागत समायोजन कार्यक्रम मध्यकालीन होता है और इसमें पूर्ति प्रबंधन पर बल दिया जाता है तथा सभी आर्थिक क्षेत्रों जैसे राजकोषीय क्षेत्र के अलावा उद्योग, विदेशी व्यापार, वित्त, इन्फ्रास्ट्रक्चर, कृषि, सामाजिक क्षेत्र आदि सभी में व्यापक परिवर्तन व सुधार करके अर्थव्यवस्था को अधिक कार्यकुशल, प्रतिस्पर्धी व आधुनिक बनाने का प्रयास किया जाता है, ताकि वह विश्व की अर्थव्यवस्था से जुड़ सके तथा उसमें अधिक खुलापन व कार्यकुशलता आ सके ।

    स्मरण रहे कि आर्थिक सुधारों का एक पक्ष आन्तरिक होता है और दूसरा बाहय होता है । आन्तरिक पक्ष में अर्थव्यवस्था को आन्तरिक रूप से सुदृढ़ किया जाता है, जैसे कृषि, उद्योग, परिवहन आदि का विकास किया जाता है और बाहय रूप में वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया जाता है जिसके तहत विदेशी व्यापार, विदेशी पूंजी व विदेशी टेक्वोलीजी को बढ़ावा दिया जाता है ।

    लेकिन भारत ने यह कार्य अनियंत्रित तरीके से नहीं करके सीमित गुण आधारित व चयनित तरीके से करने की नीति अपनाई है, जिसे ‘केलीब्रेटेड-ग्लोबलाइजेशन’ की नीति कहा गया है । इसके अन्तर्गत विदेशी सहयोग लेते समय यह देखा जाता है कि इससे स्वदेशी उद्योगों को कोई क्षति न पहुंचे । वैश्वीकरण के अंधाधुंध उपयोग से घरेलू उद्योग खतरे में पड़ सकते हैं इसलिए आवश्यक सावधानी व सतर्कता बरतने की आवश्यकता होती है ।

    औद्योगिक नीति (Industrial policy)

    नई आर्थिक नीति परिवर्तनों की एक प्रक्रिया है जिसकी शुरुआत 24 जुलाई 1991 में हुई जब की नई औद्योगिक नीति घोषित की गई जिसमें समस्त की आर्थिक नीति में होने वाले आमूलचूल परिवर्तन की स्पष्ट घोषणा की

    यह क्षेत्र निम्न थे

    1. औधोगिक लाइसेंसिकरण
    2. विदेशी विनियोग
    3. सार्वजनिक क्षेत्र संबंधी नीति
    4. विदेशी प्रौद्योगिकी के संबंध में नीति
    5. एकाधिकार तथा प्रतिबंधात्मक व्यवहार अधिनियम(MRTP) में परिवर्तन

    औद्योगिक नीति के इन पांचों आयामों में परिवर्तन के लिए राजकोषीय नीति, वित्तीय नीति, मौद्रिक नीति, विदेश व्यापार नीति, फेरा कानून में अनेक परिवर्तन किए गए इन परिवर्तनों को ही हम नई आर्थिक नीति की संज्ञा देते हैं और इस नई आर्थिक नीति के चार प्रमुख स्तंभ है

    • वैश्वीकरण
    • उदारीकरण
    • निजीकरण
    • बाजारीकरण

    1. वैश्वीकरण (Globalization)

    यह स्थानीय या क्षेत्रीय वस्तुओं या घटनाओं के विश्व स्तर पर रूपांतरण की प्रक्रिया है। इसे एक ऐसी प्रक्रिया का वर्णन करने के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है जिसके द्वारा पूरे विश्व के लोग मिलकर एक समाज बनाते हैं तथा एक साथ कार्य करते हैं। यह प्रक्रिया आर्थिक, तकनीकी, सामाजिक और राजनीतिक ताकतों का एक संयोजन है ।

    वैश्वीकरण का अर्थ है घरेलू अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ना, वैश्वीकरण की स्थिति में देश में विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के देश में प्रवेश पर प्रतिबंध नहीं होगा इस स्थिति में देश का उपभोक्ता बाहरी प्रौद्योगिकी विकास तथा गुणवत्ता का लाभ प्राप्त करेगा

    वैश्वीकरण का उपयोग अक्सर आर्थिक वैश्वीकरण के सन्दर्भ में किया जाता है,  अर्थात, व्यापार, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, पूंजी प्रवाह, प्रवास और प्रौद्योगिकी के प्रसार के माध्यम से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं में एकीकरण.

    (टॉम जी. पामर,टॉम जी काटो संस्थान (Cato Institute) के पामर) (Tom G. Palmer) ” वैश्वीकरण “को निम्न रूप में परिभाषित करते हैं” सीमाओं के पार विनिमय पर राज्य प्रतिबंधों का ह्रास या विलोपन और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न हुआ उत्पादन और विनिमय का तीव्र एकीकृत और जटिल विश्व स्तरीय तंत्र.”

    थामस एल फ्राइडमैन (Thomas L. Friedman) ” दुनिया के ‘सपाट’ होने के प्रभाव की जांच करता है” और तर्क देता है कि वैश्वीकृत व्यापार (globalized trade), आउटसोर्सिंग (outsourcing), आपूर्ति के श्रृंखलन (supply-chaining) और राजनीतिक बलों ने दुनिया को, बेहतर और बदतर, दोनों रूपों में स्थायी रूप से बदल दिया है।

    हर्मन ई. डेली (Herman E. Daly) का तर्क है कि कभी कभी अंतर्राष्ट्रीयकरण और वैश्वीकरण शब्दों का उपयोग एक दूसरे के स्थान पर किया जाता है लेकिन औपचारिक रूप से इनमें मामूली अंतर है। 

    2. उदारीकरण (Liberalization)

    1991 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में जो उदारीकरण तथा वैश्विकरण की प्रक्रिया शुरू हुयी उसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी का अन्तरपरवाह बहुत अधिक बढ़ा है आर्थिक विकास तथा औधोगिक विकास में वृद्धि हुयी है।

    उदारीकरण से आशय है घरेलू या विदेशी बाजार के संबंध में प्रत्येक प्रकार के प्रतिबंधों को समाप्त करना, जिससे उद्यमी न्यूनतम प्रतिबंध या बिना प्रतिबंध के बिना प्रक्रिया संबंधी विलंब के और बिना अफसरशाही फंसाव के उद्योग या व्यापार करना चाहे कर सके

    ऐसी स्थिति में ना तो लाइसेंसिंग प्रणाली होगी ना फेरा संबंधी और ना ही एमआरटीपी के अंतर्गत निवेश की सीमा, व्यापारिक औद्योगिक तथा विदेशी विनिमय नियंत्रण की समाप्ति उदारीकरण की सीढ़ी होगी ऐसी स्थिति में न लाइसेंस होगा और ना ही परमिट की व्यवस्था

    देश से होने वाली निर्यात की मात्रा तथा निर्यात में की दर में वृद्धि हुयी तथा साथ ही अर्थव्यवस्था में निर्यात का विविधीकरण हुआ ।

    उदारीकरण के फलस्वरूप विशेषरूप से भारतीय अर्थव्यवस्था में औधोगिक विकास के स्वरूप ढांचे में जो परिवर्तन हुए वे संक्षिप्त में इस प्रकार है:-

    1. जी.डी. पी. में औधोगिक क्षेत्र के योगदान के अंश में धीरे धीरे लगातार वृद्धि हुयी।
    2. अर्थव्यवस्था में भारी तथा पूंजीगत उधोगो को विकसीत करने पर बल दिया गया।
    3. विशेसरूप से 1991 के बाद अधोसंरचना के विकास पर भारी मात्रा में विनियोग किया गया।बिजली,कोयला,स्टील, पेट्रोलियम आदि सभी के उत्पादन में 1950-51 की तुलना में अधिक तेजी से वृद्धि हुयी ।
    4. औधोगिक ढाँचे में उपभोक्ता तथा आधारभुत वस्तुओं के भार में वृद्धि तथा माध्यमिक एवं पूंजीगत वस्तुओं के भार में कमी देखि गयी।
    5. 1991 के बाद सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका में कमी आई पर उनकी कुशलता तथा लाभदेयता में वृद्धि आयी है। सरकार ने सार्वजनिक उद्यमो में विनिवेश के माध्यम से निजीकरण की प्रक्रिया अपनायी है।
    6. उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं में व्यापक रूप से वृद्धि देखी गयी ।

    3. निजी करण (Personalization)

    निजीकरण तथा उदारीकरण परस्पर पूरक धारणाएं है उद्योगिक क्षेत्र में निजीकरण का आशय है नए निजी उद्योगों को बढ़ावा तथा पुराने सार्वजनिक क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाना या सार्वजनिक क्षेत्र धीरे-धीरे करके निजी क्षेत्र को देना

    अराष्ट्रीकरण तथा विनिवेश सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण के दो रास्ते हैं यह मान्यता थी कि सार्वजनिक क्षेत्र में अकुशलता, हानि अधिपूंजीकरण, भ्रष्टाचार आदि दोष बढ़े हैं जिसके परिणाम स्वरुप भारतीय अर्थव्यवस्था में राजकोषीय घाटा तेजी से बढ़ा है इसलिए निजीकरण आवश्यक है

    4. बाजारीकरण

    बाजारीकरण वैश्वीकरण तथा उदारीकरण की आवश्यकता है वस्तु स्थिति तो यह है कि वैश्वीकरण तथा उदारीकरण का अर्थ है बाजार की शक्तियों यानी मांग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा उत्पादन तथा संसाधनों का बंटवार

    ऐसी स्थिति में आर्थिक विकास में बाजार मैत्री दृष्टिकोण पर बल होगा, भारत में नवीन आर्थिक सुधारों का प्रारंभ 1991 पी वी नरसिम्हा राव की सरकार द्वारा किया गया, जिसे सुधारों का प्रथम चरण अथवा राव मनमोहन प्रतिरूप के नाम से जाना जाता है

    आर्थिक सुधारों के सकारात्मक परिणाम (Positive results of economic reforms)

    • भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद के आकार और आर्थिक संवृद्धि की दर में उल्लेखनीय वृद्धि की है।
    • क्रय शक्ति समता के आधार पर आज भारत विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है।
    • इन 27 वर्षों के दौरान भारत की प्रति व्यक्ति आय में लगभग 15 गुना वृद्धि हुई है।
    • आज केवल 5 उद्योगों को छोड़कर अन्य सभी के लिये लाइसेंस की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया गया है।
    • केवल 3 क्षेत्रों परमाणु उर्जा, परमाणु खनिज और रेल परिवहन को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित रखा गया है।
    • इससे अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा मिला और इसका लाभ उपभोक्ताओं को वस्तुओं और सेवाओं की बेहतर गुणवत्ता और कम कीमत के रूप में मिला।
    • विशेष आर्थिक क्षेत्रों (SEZs) और निर्यात संवर्द्धन क्षेत्रों जैसी निर्यातोन्मुख इकाइयों की स्थापना से वैश्विक निर्यात में भारत की भागीदारी में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई है।
    • विदेशी निवेश 1991 के 74 मिलियन डॉलर से बढ़कर 2014-15 में 35 बिलियन डॉलर हो गया। यह 2017-18 में लगभग 60 बिलियन डॉलर हो गया।
    • 2015 में भारत सर्वाधिक ग्रीनफील्ड निवेश प्राप्त करने वाला देश था।
    • बेसल-III मानकों को अपनाते हुए भारत ने अपनी बैंकिंग प्रणाली को मज़बूत किया और बैंकों के राष्ट्रीयकरण से आगे बढ़ते हुए बैंकिंग क्षेत्र के विविधीकरण को वित्तीय समावेशन का औज़ार बनाया गया।

    सीमाएँ (Limitations)

    • आर्थिक सुधारों के माध्यम से देश की आर्थिक संवृद्धि दर में तो उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज़ की गई, परंतु इस ओर ध्यान नहीं दिया गया कि इससे आर्थिक असमानताएँ और बढ़ जाएँगी।
    • 1991 में देश की औसत रोज़गार वृद्धि दर लगभग 2% थी जो बाद के वर्षों में घटकर 1% के आसपास रह गई।
    • औद्योगिक घरानों और राजनेताओं के गठजोड़ ने “क्रोनी कैपिटलिज्म” को बढ़ावा दिया जिसके कारण छोटे ईमानदार उद्यमी इनसे प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर पाए।
    • विदेशी निवेश के लिये भारत के कुछ राज्य ही महत्त्वपूर्ण गंतव्य बने रहे। इस प्रवृत्ति ने क्षेत्रीय असमानता को बढ़ावा दिया।
    • आर्थिक सुधारों ने देश की कृषि को कोई विशेष लाभ नहीं पहुँचाया।
    • उदारीकरण के बाद सिंचाई आदि पर व्यय कम किया जाने लगा।
    • नकदी फसलों पर बल दिए जाने और निर्यातोन्मुखी कृषि को बढ़ावा दिये जाने के कारण देश में खाद्यान्न की कीमतों पर दबाव बढ़ा।

    आर्थिक सुधार की दिशा में 1991 से अब तक उठाये गये कुछ प्रमुख कदम निम्नलिखित हैं

    भारत में आर्थिक सुधारों

    • औद्योगिक लाइसेंस प्रथा की समाप्ति
    • आयात शुल्क में कमी लाना तथा मात्रात्‍मक तरीकों को चरणबद्ध तरीके से हटाना
    • बाजार की शक्तियों द्वारा विनिमय दर का निर्धारण (सरकार द्वारा नहीं)
    • वित्तीय क्षेत्र में सुधार
    • पूँजी बाजार का उदारीकरण
    • सार्वजनिक क्षेत्र में निजी क्षेत्र का प्रवेश
    • निजीकरण करना
    • उत्पाद शुल्क में कमी
    • आयकर तथा निगम कर में कमी
    • सेवा कर की शुरूआत
    • शहरी सुधार
    • सरकार में कर्मचारियों की संख्या कम करना
    • पेंशन क्षेत्र में सुधार
    • मूल्य संवर्धित कर (वैट) आरम्भ करना
    • रियायतों (सबसिडी) में कमी
    • राजकोषीय‍ उत्तरदायित्व और बजट प्रबन्धन (FRBM) अधिनियम 2003 को पारित करना

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