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    Home»History»Rajasthan History»History of marwad : मारवाड़ का इतिहास
    Rajasthan History

    History of marwad : मारवाड़ का इतिहास

    By NARESH BHABLAAugust 11, 2020Updated:May 8, 2021No Comments11 Mins Read
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    जाने मारवाड़ Marwad का इतिहास के बारे में??
    मारवाड़
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    Page Contents

    • Marwad के जानकारी के श्रोत
      • 1 राव सिहा – 1240-1273
        • 2 आसनाथ – 1273-91
        • 4 मल्लीनाथ
        • 5 राव चुंडा
        • 6 कान्हा
        • 7 रनमल राठौड़ 1427-1438
    • राव जोधा (1438-89)-
        • राव गंगा –
        • राव मालदेव (1531-62)
        • सुमेलगिरी का युद्ध
        • हरमाङे का युद्ध
    • राव चन्द्रसेन (1562-81)-
        • मोटा राजा उदयसिंह (1583-95)
        • जसवंतसिंह प्रथम (1638-78)
        • धरमत का युद्ध – 1658ः
        • दौराई का युद्ध
        • महाराजा अजीत सिंह
    • महाराजा मानसिंह (1803-43)-

    Marwad के जानकारी के श्रोत

    उमा के अनुसार राठौड़ शब्द राष्ट्रकूट से बना है अतः यह राष्ट्रकूट कुटो वंशज थे

    गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इनको बदायूं का राठौड़ों का वंशज बताया है

    राज रत्नाकर नामक ग्रंथ में राठौड़ों को हिरण्यकश्यप की संतान बताया है

    कर्नल जेम्स टॉड ने इनका संबंध कन्नौज के गढ़वाल वंश से बताया है

    जेमस टॉड ने राव सिया को जयचंद गढ़वाल का पोत्र बताया है

    जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार इनको विश्वत मान के पुत्र बृहद वल की संतान माना गया है

    रास्ट्रोड वंश महाकाव्य के अनुसार शेत राम का पुत्र और बरदाई सेन का पोता माना है

    1 राव सिहा – 1240-1273

    राव सिहा ने पाली में अपना राज्य स्थापित किया

    धोला चोतरा या लाखा झबर के युद्ध में मुस्लिम शासक से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ

    इस समय इस की रानी पार्वती सोलंकी इस पर सती हुई

    2 आसनाथ – 1273-91

    यह सीहा का पुत्र था इसमें गुंदोज पाली को अपना केंद्र बनाया

    इसी के काल में भादियो व शाखलाओ से राठौड़ों का संघर्ष प्रारंभ हुआ

    यह दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय वीरगति को प्राप्त हुआ

    3 धुहड़

    यह आसानाथ का पुत्र था

    इसने खेड को अपनी केंद्र बनाया

    इसमें कर्नाटक से चक्रेश्वरी देवी की मूर्ति लाकर नागाणा गांव में स्थापित करवाई नागणेची माता के नाम से जानी गई जो राठौड़ों की कुलदेवी भी मानी जाती है

    यह भाटियों साखलाओ के साथ संघर्ष में मारा गया

    4 मल्लीनाथ

    इन्हें लोक देवता के रूप में भी जाना जाता है

    पशु मेला तिलवाड़ा बाड़मेर चैत्र कृष्ण एकादशी से चैत्र शुक्ल एकादशी तक

    5 राव चुंडा

    इसमें इंदा प्रतिहार की पुत्री किशोर कवरी से विवाह किया

    इंदा प्रतिहार ने चुंडा राठौड़ को मंडोर का दुर्ग दहेज में दिया

    चुंडा राठौड़ ने अपनी पुत्री हसा बाई का विवाह मेवाड़ के महाराणा लाखा से किया

    राव चुंडा ने रानी किशोर गवरी के कहने पर बड़े पुत्र रणमल के स्थान पर छोटे पुत्र कान्हा को उत्तराधिकारी घोषित किया अतः रणमल महाराणा लाखा की सेवा में चला गया

    चुंडा ने चूड़ा सर तालाब बनवाया और इसकी रानी चांद कंवर ने चांद बावड़ी का निर्माण करवाया

    चुंडा राठौड़ के समय ही मारवाड़ में सामंती प्रथा का कारण माना जाता है

    6 कान्हा

    अपनी माता किशोरी देवी के प्रभाव से कान्हा का राजवंश प्राप्त हुआ

    शाखला और भाटियो से युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ मारवाड़

    7 रनमल राठौड़ 1427-1438

     राव सीहा के वंशज वीरमदेव का पुत्र राव चुंडा इस वंश का प्रथम प्रतापी शासक हुआ,

    जिसने मांडू के सूबेदार से मंडोर दुर्ग छीनकर उसे अपनी राजधानी बनाया।

    उसने अपना राज्य विस्तार नाडोल, डीडवाना, नागौर आदि क्षेत्रों तक कर लिया।

    राव चूंडा द्वारा अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपना उत्तराधिकारी न बनाए जाने पर उनका ज्येष्ठ पुत्र रणमल मेवाङ नरेश महाराणा लाखा की सेवा में चला गया।

    वहां उसने अपनी बहन हंसाबाई का विवाह राणा लाखा से इस शर्त पर किया कि उससे उत्पन्न पुत्र ही मेवाङ का उत्तराधिकारी होगा।

    कुछ समय पश्चात् रणमल ने मेवाङ की सेना लेकर मंडोर पर आक्रमण किया और सन् 1426 में उसे अपने अधिकार में ले लिया।

    महाराणा लाखा के बाद उनके पुत्र मोकल तथा उनके बाद महाराणा कुंभा के अल्पवयस्क काल तक मेवाङ के शासन की देखरेख रखमल के हाथों में ही रही

    राव जोधा (1438-89)-

    अपने पिता रणमल की हत्या हो जाने के बाद उनके पुत्र राव जोधा मेवाङ से भाग निकले पंरतु मेवाङ की सेना ने उनका पीछा किया

    और मंडोर के किले पर मेवाङ की सेना ने अधिकार कर लिया।

    राव जोधा ने 1453 ई. में पुनः मंडोर के किले पर मेवाङ की सेना ने अधिकार कर लिया।

    सन् 1459 में उन्होंने चिङियाटूक पहाङी पर जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़) का निर्माण करवाया और इसके पास वर्तमान जोधपुर शहर बसाया।

    उनके समय जोधपुर राज्य अत्यधिक विस्तार हो चुका था। इसी समय इनकी एक रानी हाङी जसमा देवी ने किले के पास ’रानीसर’ तालाब बनवाया।

    जोधा की दूसरी रानी सोनगरी (चैहान) चांदकुंवरी ने एक बावङी बनवाई जो चांदबावङी के नाम से प्रसिद्ध है।

    किले के पास जोधा ने ’पदमसर’ तालाब बनवाया। 1489 में राव जोधा की मृत्यु हो गई।

    राव गंगा –

    इन्होंने 1527 ई. के खानवा के युद्ध में अपने पुत्र मालदेव के साथ सांगा की सहायता की थी।

    इनके पुत्र मालदेव ने इनको महल की खिङकी से गिराकर इनकी हत्या कर दी।

    अतः मालदेव मारवाङ का पितृहन्ता कहलाता है।

    राव मालदेव (1531-62)

    यह राव गंगा का पुत्र था। इसे फरिश्ता ने ’’ हसमत वाला शासक’’ कहा जाता है।

    जो 5 जून, 1531 को जोधपुर की गद्दी पर बैठा था। इसका राज्यभिषेक सोजत में सम्पन्न हुआ।

    राव मालदेव राठौङ वंश का सबसे योग्य व प्रतापी शासक हुआ।

    इनका विवाह जैसलमेर के शासक रावल लूणकरण की पुत्री उमादे से हुआ।

    जो विवाह की पहली रात से ही अपने पति से रूठ गई।

    जो आजीवन ’रूठी रानी’ के नाम कसे प्रसिद्ध रही और तारागढ़ अजमेर में अपना जीवन बिताया।

    Marwad

    सुमेलगिरी का युद्ध

    1544 ई. में अफगान बादशाह शेरशाह सूरी और मालदेव की सेनाओं के बीच सुमेलगिरी मैदान (पाली) में हुुआ।

    जिसमें शेरशाह सूरी की बङी कठिनाइयों से विजय हुई।

    तब उसने कहा था कि ’मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता।’

    इस युद्ध में मालदेव के वीर सेनानायक जेता एवं कूँपा मारे गए।

    इसके बाद शेरशाह ने जोधपुर के दुर्ग पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लिया तथा वहां का प्रबंध खवास खाँ को संभला दिया।

    मालदेव ने कुछ समय बाद पुनः समस्त क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया।

    हरमाङे का युद्ध

    सुमेल युद्ध के बाद अजमेर पर भी शेहशाह का अधिकार हो गया था। इस समय वहां हाजी खाँ नामक अमीर नियुक्त था।

    शेरशाह की मृत्यु के बाद जब हुमायूँ ने पुनः दिल्ली-आगरा पर अधिकार कर लिया तो परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए मेवाङ के महाराणा उदयसिंह ने अजमेर को जीत लिया।

    इस अवसर पर हाली खाँ अलवर-मेवात में ंथा। हुमायूँ की मृत्यु के बाद सम्राट अकबर ने मेवाङ के लिए मुगल सेना भेज दी।

    हाजी खाँ वहां से भागकर महाराणा की शरण में उदयसिंह और बीकानेर के कल्याणमलन ने मालदेव के विरुद्ध उसकी सहायता के लिए सैनिक दस्ते भेज दिए।

    अतः मालदेव की सेना बिना युद्ध किए ही वापस लौट गई। उसके कुछ दिनों बाद ही ’रंगराय’ नामक वेश्या को लेकर महाराणा उदयसिंह और हाजी खाँ के आपसी संबंध बिगङ गए और महाराणा ने हाजी खाँ को दंड देने का निश्चय किया।

    अब हाजी खाँ ने मालदेव से सहायता की याचना की।

    मालदेव तो पहले ही महाराणा से खिन्न था और वह मेवाङ की बढ़ती हुई शक्ति को भी नियंत्रित करना चाहता था।

    अतः उसने तत्काल हाजी खाँ की सहायता के लिए सेना भेज दी।

    उधर, मेवाङ की सेना भी हरमाङे नामक स्थान पर जा पहुंची। हाजी खाँ और मालदेव की सेना ने भी हरमाङे में मोर्चा जमा लिया।

    हरमाङे के इस युद्ध में मेवाङ की सेना बुरी तरह पराजित हुई। इससे राजस्थान में मालदेव की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित हो गई।

    राव चन्द्रसेन (1562-81)-

    इन्हें Marwad का राणा प्रताप, प्रताप का अग्रगामी, भूला-बिसरा राजा आदि नामों से जाना जाता है।

    राव चन्द्रसेन Marwad नरेश राव मालदेव के छठे पुत्र थे।

    राव मालदेव के देहांत के बाद उनके कनिष्ठ पुत्र राव चन्द्रसेन 1562 में जोधपुर की गद्दी पर बैठे।

    उस समय राव चन्द्रसेन के तीनों बङे भाइयों में कलह पैदा हो गया था।

    इस दौरान राव चन्द्रसेन परिवार सहित भाद्राजूण की तरफ चले गए।

    मौके का लाभ उठाकर 1564 ई. में जोधपुर किले पर मुगल सेना का अधिकार हो गया था।

    राव चन्द्रसेन प्रथम राजपूत शासक थे जिन्होंने अपनी रणनीति में दुर्ग के स्थान पर जंगल और पहाङी क्षेत्र को अधिक महत्व दिया।

    इन्होंने जीवन भर अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की।

    जब नवम्बर 1570 ई. में अकबर हुआ था वहां कई राजपूत राजाओं ने उपस्थित होकर उपस्थित होकर अकबर की अधीनता स्वीकार की थी।

    वहां राव चन्द्रसेन भी भाद्राजूण से नागौर दरबार में आए थे परंतु अन्य राजाओं की तरह उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की एवं चुपचाप वहां से भाद्राजूण चले गए।

    मोटा राजा उदयसिंह (1583-95)

    उदयसिंह मारवाङ का प्रथम शासक था, जिसने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर उनसे वैवाहिक संबंध स्थापित किए।

    राव उदयसिंह ने अपनी पुत्री मानीबाई (जगत गसाई) का विवाह शहजादा सलीम (जहांगीर) से कर मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित किए।

    जसवंतसिंह प्रथम (1638-78)

    इनका राज्यभिषेक आगरा में हुआ। मुगल बादशाह शाहजहां ने इन्हें ’’महाराजा’’ की उपाधि देकर सम्मानित किया था।

    1656 ई. में शाहजहां के बीमार हो जाने पर उसके चारों पुत्रों में उत्तराधिकार का संघर्ष हुआ।

    महाराजा जसवंतसिंह ने शाहजहां के बङे पुत्र दाराशिकोह का साथ दिया।

    और औरंगजेब को हराने के लिए उज्जैन की तरफ सेना लेकर गए।

    धरमत का युद्ध – 1658ः

    औरंगजेब एवं दाराशिकोह के मध्य उत्तराधिकार युद्ध, जो उज्जैन के पास धरमत में लङा गया। शाही फौज ने औरंगजेब को हरा दिया।

    मारवाङ शासक महाराजा जसवंत सिंह प्रथम ने इस युद्ध में दाराशिकोह की शाही सेना का नेतृत्व किया था।

    दौराई का युद्ध

    11 मार्च से 15 मार्च 1659 में अजमेर के निकट दौराई स्थान पर पुनः दाराशिकोह एवं औरंगजेब की सेना के मध्य युद्ध हुआ।

    जिसमें दाराशिकोह की सेना पराजित हुई और जसवंत सिंह प्रथम औरंगजेब की शरण में चले गए।

    28 नवम्बर 1678 ई. में महाराजा का जमरूद (अफगानिस्तान) में इनका देहांत हो गया।

    जसवंत सिंह प्रथम के मंत्री मुहणोत नैणसी ने ’ नैणसी की ख्यात’ एवं ’मारवाङ रा परगाना री विगत’ नामक दो ऐतिहासिक ग्रंथ लिखे थे

    परंतु अंतिम दिनों में महाराजा जसवंत सिंह प्रथम से अनबन हो जाने के कारण नैणसी को कैदखाने में डाल दिया।

    जहां उसने आत्महत्या कर ली।

    महाराजा जसंवत की मृत्यु के समय इनकी रानी गर्भवती थी

    परंतु जीवित उत्तराधिकारी के अभाव में औरंगजेब ने जोधपुर राज्य को मुगल साम्राज्य में मिला लिया।

    जसंवत सिंह की मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा था ’आज कुफ्र (धर्म विरोध) का दरवाजा टूट गया है।’

    महाराजा अजीत सिंह

    महाराजा जसंवत सिंह की गर्भवती रानी के राजकुमार अजीतसिंह को 19 फरवरी, 1679 को लाहौर में जन्म दिया।

    जोधपुर के राठौङ सरदार वीर दुर्गादास एवं अन्य सरदारों ने मिलकर औरंगजेब से राजकुमार अजीतसिंह को जोधपुर का शासक घोषित करने की मांग की थी प

    रन्तु औरंगजेब ने इसे टाल दिया एवं कहा कि राजकुमारी के बङा हो जाने पर उन्हें राजा बना दिया जाएगा।

    इसके बाद औरंगजेब ने राजकुमार एवं रानियों को परवरिश हेतु दिल्ली अपने पास बुला लिया। इन्हें वहां रूपसिंह राठौङ की हवेली में रखा गया।

    उसके मन मे पाप आ गया था और वह राजकुमार को समाप्त कर जोधपुर राज्य को हमेशा के लिए हङपना चाहता था।

    वीर दुर्गादास औरंगजेब की चालाकी से राजकुमार अजीतसिंह एवं रानियों को ’बाघेली’ नामक महिला की मदद से औरंगजेब के चंगुल से बाहर निकल लाए

    और गुप्त रूप से सिरोही के कालिन्दी स्थान पर जयदेव नामक ब्राह्मण के घर पर उनकी परवरिश्ज्ञ की।

    दिल्ली में एक अन्य बालक को नकली अजीतसिंह के रूप में रखा।

    बादशाह औरंगजेब ने बालक को असली अजीतसिंह समझते हुए उसका नाम मोहम्मदीराज रखा।

    मारवाङ में भी अजीतसिंह को सुरक्षित न देखकर वीर राठौङ दुर्गादास ने मेवाङ में शरण ली।

    मेवाङ महाराणा राजसिंह ने अजीतसिंह के निर्वाह के लिए दुर्गादास को की जागीर प्रदान की।

    औरंगजेब की मृत्यु के बाद महाराजा अजीतसिंह ने वीर दुर्गादास व अन्य सैनिकों की मदद से जोधपुर पर अधिकार कर लिया और

    12 मार्च ,1707 केा उन्होंने अपने पैतृक शहर जोधपुर में प्रवेश किया।

    बाद में गलत लोगों के बहकावे में आकर महाराजा अजीतसिंह ने वीर दुर्गादास जैसे स्वामीभक्त वीर को अपने राज्य से निर्वासित कर दिया,

    जहां वे वीर दुर्गादास दुःखी मन से मेवाङ की सेवा में चले गए।

    महाराजा अजीतसिंह ने मुगल बादशाह फर्रुखशियर के साथ संधि कर ली और लङकी इन्द्र कुँवरी का विवाह बादशाह से कर दिया।

    23 जून, 1724 को महाराजा अजीतसिंह की इनके छोटे पुत्र बख्तसिंह ने सोते हुए हत्या कर दी।

    अतः बख्तसिंह मारवाङ का दूसरा पितृहन्ता कहालाता है।

    महाराजा मानसिंह (1803-43)-

    1803 में उत्तराधिकार युद्ध के बाद मानसिंह जोधपुर के सिंहासन पर बैठे। तब मानसिंह जालौर में मारवाङ की सेना से घिरे हुए थे।

    तब गोरखनाथ सम्प्रदाय के गुरु आयम देवनाथ ने भविष्यवाणी की, कि मानसिंह शीघ्र ही जोधपुर के राजा बनेंगे।

    अतः राजा बनते ही मानसिंह ने देवनाथ का जोधपुर बुलाकर अपना गुरु बनाया तथा वहां नाथ सम्प्रदाय के महामंदिर का निर्माण करवाया।

    इन्होंने 1818 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ आश्रित पार्थक्य की संधि की।

    मानसिंह व जगतसिंह द्वितीय के मध्य कृष्णा कुमारी के कारण गिंगोली का युद्ध हुआ।

    दोस्तो आज की पोस्ट में आपने  मारवाड़ का इतिहास के बारें में पढ़ा ,आपको ये जानकारी कैसे लगी ,नीचे दिये कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें 

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