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    Home»History»Arts & Culture»राजस्थान की चित्रकला Rajasthan Painting
    Arts & Culture

    राजस्थान की चित्रकला Rajasthan Painting

    By NARESH BHABLAAugust 12, 2020Updated:August 12, 2020No Comments20 Mins Read
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    Page Contents

    • राजस्थान की चित्रकला
    • राजस्थानी चित्रकला की चार प्रमुख शैलियां
    • प्रमुख विशेषताएँ
    • प्रमुख चित्रकार
    • प्रमुख चित्र
    • उदयपुर
    • 2. किशनगढ़ शैली
    • विशेषताएं
    • चित्रकार
    • 3. बीकानेर शैली
    • प्रमुख चित्रकार
    • शैली की विशेषताएं
    • 4. बूँदी चित्रशैली
    • शत्रुशाल(छत्रशाल)
    • उम्मेद सिंह
    • बूँदी चित्रशैली की विशेषता
    • बूंदी चित्र शेली के प्रमुख कलाकार
    • 5. जयपुर शैली
    • विशेषताएं
    • पृकृति चित्रण
    • 6. कोटा चित्र शैली
    • विशेषताएं
    • 7. उनियारा शैली: –
    • विशेषताएं
    • 8. अलवर शैली
    • ‘बलवन्तसिंह’ 1827-1866 ई 
    • विशेषताएं
    • 9. जोधपुर शैली
    • विषय
    • प्रमुख चित्रकार
    • 10.आमेर शैली
    • 11. अजमेर शैली
    • चित्रो की विशेषता

    राजस्थान की चित्रकला

    भारतीय चित्रकला के पितामह रवि वर्मा (केरल) हैं

    सर्वप्रथम आनंद कुमार स्वामी ने अपने ग्रंथ `राजपूत पेंटिंग’ में राजस्थान की चित्रकला का स्वरूप को 1916 ई.में उजागर किया राजस्थान में आधुनिक चित्रकला को प्रारंभ करने का श्रेय कुंदनलाल मिस्त्री को दिया जाता है

    राजस्थान की चित्रकला में अजंता व मुगल शैली का सम्मिश्रण पाया जाता है

    राजस्थानी चित्रकला को राजपुत्र चित्र शैली भी कहा जाता है राजस्थानी चित्रकला में चटकीले भड़कीले रंगों का प्रयोग किया गया हैं!

    विशेषत: पीले और लाल रंग का सर्वाधिक प्रयोग किया गया है

    राजस्थानी चित्रकला शैली का प्रारंभ 15वीं से 16वीं शताब्दी के मध्य माना जाता है

    राजस्थानी चित्रकला की चार प्रमुख शैलियां

    1. मेवाड़ शैली– उदयपुर, नाथद्वारा, चावण्ड, देवगढ़
    2. मारवाड़ी शैली– जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, किशनगढ, नागौर, अजमेर,
    3. ढूंढाड़ शैली– आमेर, जयपुर, शेखावाटी, अलवर, करौली।
    4. हाडोती शैली– बूंदी, कोटा, झालावाड़, दुगारी!

    चित्रकला की सर्वाधिक प्राचीन शैली। मेवाड़ शैली को विकसित करने में महाराणा कुम्भा का विशेष योगदान रहा।

    यह चित्र शैली राजस्थानी चित्रकला का प्रारंभिक और मौलिक रूप है।

    मेवाड़ में आरम्भिक चित्र ‘श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी’ (सावग पड़ीकमण सुत चुन्नी) ग्रन्थ से 1260 ई. के प्राप्त हुए है।

    इस ग्रन्थ का चित्रांकन राजा तेजसिंह के समय में हुआ। यह मेवाड़ शैली का सबसे प्राचीन चित्रित ग्रन्थ है।

    दूसरा ग्रन्थ ‘सुपासनाह चरियम’ (पाश्र्वनाथ चरित्र) 1423 ई. में देलवाड़ा में चित्रित हुआ।

    केशव की रसिक प्रिया तथा गीत गोविन्द मेवाड़ शैली के प्रमुख उदाहरण है।

    प्रमुख विशेषताएँ

    • भित्ति चित्र परम्परा का विशेष महत्व रंग संयोजन की विशेष प्रणाली, मुख्य व्यक्ति अथवा घटना का चित्र, सजीवता और प्रभाव उत्पन्न करने के लिए भवनों का चित्रण, पोथी ग्रंथों का चित्रण आदि।
    • इस शैली में पीले रंग की प्रधानता है।  
    • मेवाड़ शैली के चित्रों में प्रमुख कदम्ब के वृक्ष को चित्रित किया गया है।
    • वेशभूषा – सिर पर पगड़ी, कमर में पटका, कानों में मोटी, घेरदार जामा
    • पुरुष आकृति- लम्बी मूछें, बड़ी आँखे, छोटा कपोल व कद, गठीला शरीर।
    • स्त्री आकृति- लहंगा व पारदर्शी ओढ़नी, छोटा कद, दोहरी चिबुक, ठुड्डी पर तिल, मछली जैसी आँखे, सरल भावयुक्त चेहरा।

    प्रमुख चित्रकार

    कृपाराम, भेरुराम, हीरानंद, जगन्नाथ, मनोहर, कमलचंद्र, नसीरूद्दीन/निसारदीन

    प्रमुख चित्र

    रागमाला, बारहमासा, कृष्ण लीला, नायक-नायिका आदि

    राणा अमरसिंह प्रथम- 1597 से 1620 ई.इनके समय रागमाला के चित्र चावण्ड में निर्मित हुए।

    इन चित्रों को निसारदीन ने चित्रित किया। इनका शासनकाल मेवाड़ शैली का स्वर्ण युग माना जाता है।

    महाराणा अमरसिंह द्वितीय- इनके शासनकाल में शिव प्रसन्न, अमर-विलास महल मुग़ल शैली में बने जिन्हें आजकल ‘बाड़ी-महल’ माना जाता है।

    राणा कर्णसिंह- इनके शासनकाल मर्दाना महल व जनाना महल का निर्माण हुआ।

    राणा जगतसिंह प्रथम- इस काल में रागमाला, रसिक प्रिया, गीतगोविंद, रामायण आदि लघु चित्रों का निर्माण हुआ।

    प्रमुख चित्रकार साहबदीन व मनोहर। जगतसिंह के महल में चितेरों की ओवरी नामक कला विद्यालय स्थापित किया गया जिसे तसवीरां रो कारखानों नाम से भी जाना जाता है

    महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के बाद साहित्यिक ग्रंथों के आधार पर लघु चित्रों का समय लगभग समाप्त हो गया।

    उदयपुर

    • पराक्रम शैली का विकास
    • राजकीय संग्रालय में मेवाड़ शैली के लघु चित्रों का विशाल भण्डार।
    • यहाँ विश्व में मेवाड़ शैली के सबसे चित्र है।
    • इस संग्राहलय में रसिक प्रिया का चित्र सबसे प्राचीन है।

    2. किशनगढ़ शैली

    उदयसिंह के 9वें पुत्र किशनसिंह ने सन् 1609 ई.मे अलग राज्य किशनगढ़ की नीवं डाली।

    यहां के राजा वल्लभ सम्प्रदाय मे दीक्षित रहे, इसलिए राधा- कृष्ण की लीलाओं का साकार स्वरूप चित्रण के माध्यम से बहुलता से हुआ।

    1643-1748 ई काव्य और चित्रकला का क्रमिक विकास हुआ।

    भंवरलाल, सूरध्वज आदि चित्रकारों ने इसे खूब बढाया। किशनगढ़ शैली अपनी धार्मिकता के कारण विशवप्रसिद्ध हुई।

    राजसिंह ने चित्रकार निहालचंद को चित्रशाला प्रबंधक बनाया। 

    बणी-ठणी चित्रकला

    राजा सावन्तसिहं का काल (1748- 1764 ई.) किशनगढ़ शैली की द्रष्टि से स्वर्णयुग कहा जा सकता हैं।

    स्वयं एक अच्छा चित्रकार था एव धार्मिक प्रकृति का व्यक्ति था। अपनी विमाता द्रारा दिल्ली के अन्त:पुर से लाई हुई सेविका उसके मन मे समा गई।

    इस सुन्दरी का नाम बणी-ठणी था। शीघ्र ही यह उसकी पासवान बन गई।

    नागरीदास जी के काव्य प्रेम , गायन, बणी-ठणी के संगीत प्रेम और कलाकार मोरध्वज निहालचंद के चित्रकार ने किशनगढ़ की चित्रकला को सर्वोच्च स्थान पर पहुंचा दिया।

    नागरीदास की प्रेमिका बणी-ठणी को राधा के रुप मे अंकित किया जाता हैं।

    किशनगढ़ शैली की अलौकिकता धीरे-धीरे विलीन होने लगी और विकृत स्वरूप सामने आने लगा,।

    19वीं शती मे पृथ्वीसिंह के समय (1840-1880ई.) के चित्रो मे दिखाई पड़ता हैं।

    अपना अमर इतिहास पीछे छोड़कर किशनगढ़ शैली धीरे-धीरे पतनोन्मुखी हो गई।

    विशेषताएं

    • शैली मे पुरुषाकृति मे लम्बा छरहरा नील छवियुक्त शरीर ,जटाजूट की भांति ऊपर उठी हुई मोती की लडिय़ों से युक्त शवेत या मूँगिया पगड़ी, समुन्नत ललाट, लम्बी नासिका, मधुर,पतली आदि निजी विशेषताएं हैं।
    • सारे मुखमंडल मे नेत्र इतने प्रमुख रहते हैं कि दर्शक की प्रथम द्रष्टि वही पर मँडराने लगती हैं।
    • अलंकारों ओर फूलो से आवेष्टित सारा शरीर किशनगढ़ शैली मे अनोखा हैं।
    • नारी आकृति मे भी प्राय: उपयुर्क्त ही नारी सुलभ लावण्य दर्शनीय हैं।
    • किशनगढ़ शहर तथा रुपनगढ़ का प्राकृतिक परिवेश जिस प्रकार झीलों, पहाड़ों, उपवनों और विभिन्न पशु-पक्षियों से युक्त रहा है।
    • यही चित्रण बूँदी शैली मे सीमित क्षेत्र मे हुआ हैं। चाँदनी रात मे राधाकृष्ण की केलि-क्रीड़ाएं
    • प्रात:कालीन और सांध्यकालीन बादलों का सिन्दूरी चित्रण शैली मे विशेष हुआ हैं।
    • किशनगढ़ शैली के चित्रों मे कई जगह ताम्बूल सेवन का वर्णन मिलता हैं।
    • शैली के अन्य प्रमुख चित्र – दीपावली, सांझी लीला, नौका विहार राधा/बणीठणी (1760 ई),गोवर्धन धारण (1755) ई.इनके चित्रकार निहालचंद थे।
    • लाल बजरा (1735-1757 ई,),
    • राजा सावंत सिहं की पूजा और बणीठणी (1740 ई)
    • ताम्बूल सेवा (1780 ई)
    • दा डिवाईन कपल (1780ई.) भी उल्लेखनीय चित्र हैं।

    चित्रकार

    • किशनगढ़ शैली के चित्रकारों मे ‘अमीरचंद’ ,धन्ना, भंवरलाल ,छोटू, सूरतराम सूरध्वज मोरध्वज निहालचंद नानकराम ,सीताराम रामनाथ, तुलसीदास आदि नाम उल्लेखनीय हैं।
    • इस शैली का प्रसिद्ध चित्र बणी-ठणी ही है जिसे एरिक डिकिन्सन ने भारत की ‘मोनालिसा’ कहा हैं।
    • भारत सरकार ने 1973 ई.मे बणी-ठणी पर डाक टिकट जारी किया
    • शैली को प्रकाशन मे लाने का श्रेय ‘एरीक डिकिन्सन ‘ तथा ‘डाॅ. फैयाज अली’ को हैं।

    3. बीकानेर शैली

     बीकानेर शैली का प्रादुर्भाव 16 वी शती के अन्त मे माना जाता हैं।

    राव रायसिंह के समय चित्रित ‘ भागवत पुराण ‘प्रारंभिक चित्र माना जाता हैं

    बीकानेर नरेश ‘ रायसिंह ‘(1574-1612ई) मुगल कलाकारों की दक्षता से प्रभावित होकर वे उनमें से कुछ को अपने साथ ले आये।

    इनमें ‘उस्ता अली रजा ‘व ‘उस्ता हामिद रुकनुद्दीन ‘ थे। इन दोनों कलाकारों की कला की कलाकृतियों से चित्रकारिता की बीकानेर शैली का उद्भव हुआ।

    बीकानेर के प्रारंभिक चित्रो मे जैन स्कूल का प्रभाव जैन पति मथेरणों के कारण रहा।

    यहां दो परिवारों का ही प्रभाव चित्रकला पर विशेष रहा मथेरण परिवार जैन मिश्रित शैली, मुगल दरबार मुगल शैली मे कुशल था।

    इस समय यह शैली चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई। बीकानेर शैली के चित्रों मे कलाकार का नाम उसके पिता का नाम ओर सवंत् उपलब्ध होता हैं।

    18 वी सदी मे ठेठ राजस्थानी शैली मे चित्र बने उनकी रंगत ही अलग हैं

    ऊँची मारवाड़ी पगड़ियां, ऊँट हरिन, बीकानेर रहन-सहन और राजपूती संस्कृति की छाप प्रमुखता देखने को मिलती हैं।

    भागवत कथा आदि पर भी चित्र बने। महाराज अनूपसिंह के काल मे विशुद्ध बीकानेर शैली के दर्शन होते है 

    राजा अनूप सिंह का काल बीकानेर शैली का स्वर्णयुग कहा जाता है

    प्रमुख चित्रकार

    मथेरण परिवार के चित्रकारों ने अपनी परम्परा को कायम रखा।

    उन्होंने जैन-ग्रंथ अनुकृति, धर्मग्रंथ का लेखन एवं तीज -त्यौहार व राजा व्यक्ति -चित्र उन्हें भेट किये।

    मुन्ना लाल, मुकुंद (1668), रामकिशन (1170),जयकिशन मथेरण, चन्दूलाल (1678),शिवराम (1788),जोशी मेघराज (1797) आदि चित्रकारों के नाम एवं संवत् अंकित चित्र आज भी देखने को मिलता हैं।

    चित्रकारों मे उस्ता परिवार के उस्ता कायम, कासिम, अबुहमीद, शाह मोहम्मद, अहमद अली, शाहबदीन, जीवन आदि प्रमुख हैं।

    इन्होंने रसिकप्रिया, बारहमासा,रागरागिनी,कष्ण- लीला, शिकार, महफिल तथा सामन्ती वैभव का चित्रण किया था।

    शैली की विशेषताएं

    बीकानेर राज्य का मुगल दरबार से गहन सम्बन्ध होने के कारण मुगल शैली की सभी विशेषताएं बीकानेर की प्रारंभिक चित्रकला मे द्रष्टव्य हैं।

    दक्षिणी शैली का प्रभाव बीकानेर शैली पर सर्वाधिक हैं। इस शैली मे आकाश को सुनहरे छल्लो से यक्त मेघाच्छादित दिखाया गया है।

    बरसते बादलों मे से सारस-मिथुनों की नयनाभिराम आकृतिया भी इसी शैली की विशेषता है

    यहां फव्वारों, दरबार के दिखाओं आदि मे दक्षिण शैली का प्रभाव दिखाई देता हैं।

    4. बूँदी चित्रशैली

    इस शेली पर मेवाड़ चित्र शैली का प्रभाव स्प्ष्ट नजर आता

    शत्रुशाल(छत्रशाल)

    1. रंगमहल का निर्माण करवाया जो अपने सुंदर भित्ति चित्रण के कारण विश्व प्रसिद्ध है
    2. भावसिंह के आश्रय में “मतिराम” जैसे कवि थे।
    3. मतिराम की रचनाएं है
      ललित ललाम,रसराज
    4. अनिरुद्ध सिंह के समय हाड़ोती चित्र शैली में , साउथ शेली का प्रभाव भी आया

    उम्मेद सिंह

    चित्रशाला में राव उम्मेद सिंह का जंगली सुअर(?) का शिकार करते हुए चित्र मिलता है चित्रशाला का निर्माण राव उम्मेद सिंह के समय हुआ

    बूँदी चित्रशैली की विशेषता

    प्रधान रंग- नारंगी व हरा

    विषय

    • नायिक-नायिका, बारहमासा, ऋतु चित्रण, भागवत पुराण पर आधारित कवियों की रचनाओं से सम्बंधित चित्र मिले।
    • दरबारी दृश्य , अन्तःपुर या रनिवास के भोग विलास युक्त जीवन ,शिकार, होली, युद्ध के चित्र मिले।
    • पशु-पक्षी अर्थात बूंदी चित्र शेली को पुश-पक्षियों वाली चित्र शैली भी कहा जाता है।
    • प्रकृति- आकाश में उमड़ते हुये काले बादल, बिजली की कौंध, घनगोर वर्षा, हरे भरे पेड़।

    बूंदी चित्र शेली के प्रमुख कलाकार

    सुर्जन, अहमदली, रामलाल, श्री किशन ओर साधुराम इस शैली के प्रमुख कलाकार हुए

    5. जयपुर शैली

    (1699-1743 ई) का युग ‘महाराजा सवाई जयसिंह प्रथम’ का आता हैं।

    वह कला की प्रगति की द्रष्टि से कई अर्थो मे महत्वपूर्ण रहा।

    सवाई जयसिंह ने अपने राजचिन्हों, कोषो,रोजमर्रा की वस्तुएं, कला का खजाना, साज-समान आदि को सही ढंग से रखने या संचालित करने लिये ‘ छतुस कारखानो ‘ की स्थापना की।

    ‘सूरतखाना’ भी एक था उसमे चित्रकार चित्रो का निर्माण करते थे।

    इस समय मे ‘ रसिकप्रिय ‘, कविप्रिया’, ‘ गीत-गोविन्द,’ ‘बारहमासा,’ ‘,नवरस’, और ‘ रागमाला ‘ चित्रो का निर्माण हुआ था।

    ये सभी चित्र मुगलिया प्रभाव लिये थे। दरबारी चित्रकार ‘ मोहम्मद शाह ‘ व साहिबराम ‘ थे।

    चित्रकारों मे ईशवरसिंह का शोक द्रारा कागज पर काटी जालियां व बेलबूटों के कुछ नमूने आज भी महाराजा सवाई मानसिंह द्रितीय संग्रहालय मे सुरक्षित हैं। ‘

    और लालचन्द’ चित्रकारों ने उनके कार्य – साहिबराम ने बड़े व्यक्ति चित्र बनाकर नयी परम्परा डाली, लालचंद ने लडा़इयों के अनेक चित्र बनाये।साहिबराम

    महाराजा ‘ सवाई माधोसिंह प्रथम ‘ (1750-1767 ई.)के समर कलाकारों ने चित्रण के स्थान पर रंगों को न भरकर मोती, लाख तथा लकड़ी की मणियों को चिपकाकर रीतिकालीन प्रवृत्ति को बढाया।

     लाल चितेरा सवाई जयसिंह तथा सवाई माधोसिंह का एक प्रमुख चित्रकार था।

    सवाई माधोसिंह को ही विभिन्न मुद्राओं मे चित्रित किया गया हैं। जैसे दरबार मे जननी मजलिस, शिकार, घुडसवारी,हाथियों की लडा़ई देखते, उत्सवों व त्यौहारों मे होते है।

    अन्य चित्रकारो मे ‘रामजीदास’ व ‘गोविंदा ‘ ने भी चित्र बनायें।

    माधोसिंह के पुत्र ‘ सवाई पृथ्वीसिंह’ जो 1767-1779 ई.गद्दी पर बैठा।

    इनके शासन काल मे ‘मंगल,’ ‘ हीरानंद’ और ‘त्रिलोका’ नामक चित्रकारो ने महाराज के चित्र बनाये। ‘ सवाई प्रतापसिंह 1779- 1803 ई ने राज्य का कार्यभार संभाला।

    सवाई प्रतापसिंह के समय पचास से भी अधिक कलाकार सूरतखाने मे चित्र बनाते थे जीनमे-रामसेवक, गोपाल, हुकमा, चिमना, सालिगराम, लक्ष्मण, घासी बेटा सीताराम, हीरा,सीता-राम राजू ,शिवदास,गोविंद राम आदि।

    शैली की विशेषताएं व साहिबराम कलाकार द्रारा बने चित्र ,’ राधाकृष्ण का नृत्य’ व ‘महाराजा सवाई प्रतापसिंह ‘का आदमकद व्यक्ति चित्र, ‘ देवी भागवत् ‘ संवत 1856. (1799 ई.)’ भागवत दशम स्कद’ (1792), ‘ रामायण,’। ‘कृष्णलीला ‘ आदि की पाण्डुलिपि पर चित्र श्रृंखला तैयार की।

    रागमाला (1785-90) छतीस राग-रागनियों पर आधारित) का सम्पूर्ण सैट , जिसमे 34 चित्र उपलब्ध हैं।

    इन चत्रो को ‘ जीवन,” नवला,’ और ‘शिवदास’ नामक कलाकारों ने मिलकर बनाया। कला की मौलिकता ‘ महाराजा सवाई जगतसिंह’ 1803-1818 ईतक चलती रही।

    ‘महाराजा जयसिंह द्रितीय’ व ‘ महाराजा रामसिंह’ के समय सन् 1835 ई.मे प्राचीन पद्रृति का ह्मस अपनी चरमसीमा पर पहुँचा गया।

    इस समय के तिथि युक्त चित्रों मे 1838 ई.का :संजीवनी,’ 1846 ई. का ‘श्री सीलवृद्रि साहित्य,’1848 ई.का ‘महाभारत सैट,’ 1850 ई.की ‘ भागवत गीता’ हैं।

    इस समय मे ‘ आचार्य की हवेली’ (गलता), ‘दुसाद की हवेली,’ ‘ सामोद की हवेली’ व ‘प्रताप नारायण पुरोहित जी ‘ हवेलियां मे सुन्दर चित्र का निर्माण हुआ है। ‘ महाराजा सवाई माधोसिंह द्रितीय’

    (1880- 1922 ई के शासन तक चित्रकार पूर्ण रुप से यूरोपियन प्रभाव मे ढ़ल चुके थे। इस समय मे ‘ दश महाविधा’ का ‘ जवाहर सैट’ 1920 ई.प्रमुख है।

    विशेषताएं

    • सैकड़ों व्यक्तिचित्र और समूह- चित्र जयपुर-,शैली की अपनी विशेष दाय हैं।
    • हाशिये बनाने मे गहरे लाल रंग का प्रयोग किया।
    • चाँदी – सोने का प्रयोग. भी उन्होनें चित्रो मे किया।
    • इस शैली के चित्रों मे पुरुष तथा महिलाओं के कद अनुपातिक हैं
    • पुरुष पात्रो के चेहरे साफ तथा आँखें खंजनाकार हैं।
    • नारी पात्रो का अंकन स्वस्थ, आँखें बडी़, लम्बी केशराशि, भरा हुआ शरीर तथा सुहावनी मुद्रा मे हुआ हैं।

    पृकृति चित्रण

    • नीले बादलो मे सफेद रुईदार बादल तैरते हुए बनाने की परम्परा रही है।
    • उद्दान मे आम्र, केला, पीपल, कदम्ब के वृक्ष बनाये गए हैं।
    • शेखावाटी शैली का विस्तृत वर्णन भिति चित्रो मे किया गया हैं।

    6. कोटा चित्र शैली

    कोटा चित्र शैली का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करने का श्रेय “राव रामसिंह” को जाता है

    कोटा चित्र शेली माहाराव “उम्मेद सिंह” के समय अपने चर्मोत्कर्ष पर थी

    मुख्य विशेषता जगलो में शिकार?? करने के चित्र यहाँ अधिक मिले है

    यहां शासको के साथ रानियो व स्त्रियों को भी शिकार करते हुए दिखाया गया है

    रामसिंह(1828) में , ये कला प्रेमी थे इनको हाथी व घोड़े की सवारी अधिक प्रिय थी।

    अतः उनको चित्रों में राजसी वेशभूषा पहले हुये, हाथी व घोड़े पर बैठे अधिक अंकन किया गया है।

    इनके समय के चित्रों में कुछ चमत्कारी चित्र भी मिलते है जैसे, हाथी की सूंड पर नारी का नृत्य, छतरी पर हाथी की सवारी आदि-आदि।

    1857 के समर के बाद इस शैली पर कम्पनी की कलम का प्रभाव भी आने लगा।

    शत्रुशाल द्वितीय के बाद ये शैली अपने पतन की ओर उन्मुख (पतनोन्मुख) हो गई

    विशेषताएं

    १. नारी सौंदर्य

    इस शैली में नारी का चित्रण अधिक सुंदर मिलता है। जैसे सुदीर्घ नासिका, पतली कमर, उन्नत उरोज, कपोल खिले हुए, सुंदर अलकावली नारी आकृति की जीवंतता प्रदान करती है।

    २. पुरुष आकृति

    मुख्यतः बृषभ कंधे, उन्नत भौहे , माँसल देह, मुख पर भरी भरी दाढी और मुछे, तलवार कतार आदि हथियारों से युक्त वेशभुषा।
    मोतियों के जड़े आभूषण विशेष

    प्रमुख रंग- हल्का हरा, पीला व नीला रंग अन्य रंगों की अपेक्षा अधिक प्रयोग हुआ है

    प्रमुख कलाकार- रघुनाथ, गोविंदराम, डालू, लच्छीराम, नूरमोहम्मद

    7. उनियारा शैली: –

    उनियारा जयपुर और बूँदी रियासतों की सीमा पर बसा है।

    बूँदी एवं उनियारा के रक्त संबंध अथवा वैवाहिक संबंधों के कारण उनियारा पर उसका प्रभाव भी पडा़ शनै: शनै: एक नयी शैली का प्रादुर्भाव हुआ,

    जिसे उनियारा शैली के नाम से जाना गया।

    आमेर के कछवाहों मे नरुजी के वंशज ‘ नरुका’ कहलाते थे।इन्ही की वंश परम्परा मे ‘ राव चन्द्रभान’ 1586- 1660 ई.ने मुगल पक्ष मे कान्धार युद्ध 1660 ई.मे अत्यधिक शौर्य प्रदर्शित किया।

    इससें प्रसन्न होकर मुगल बादशाह ने इनको ‘उनियारा’ ,नगर, ककोड़, और बनेठा के चार परगने जागीर मे दिये।

    चन्द्रभान की पाँचवीं पीढी मे ‘ रावराजा सरदारसिंह’ ने ‘ धीमा’, मीरबक्स’ , ‘काशी ,’ भीम’, आदि कलाकारों को आश्रय प्रदान किया।

    उनियार के नगर और रंगमहल के भितिचित्रों के अवलोकन से ज्ञात होत हैं कि इन पर बूँदी ओर जयपुर का समन्वित प्रभाव हैं

    अनेक पोथी चित्रो तथा लघुचित्रों के माध्यम से भी उनियारा उपशैली का ज्ञान होता हैं।’

    राम -सीता, लक्ष्मण व हनुमान’ मीरबक्स कलाकार द्रारा चित्रित उनियारा शैली का उत्कृष्ट चित्र हैं। रावराजा सरदारसिंह की ‘ जनानी महफिल’ व’ मर्दानी महफिल’ के चित्र विशेष हैं।

    विशेषताएं

    • आकृति:- चित्रो मे नारी के चेहरे कोमल भावों को व्यन्जित करते है।
    • मीनाकारी नेत्र, लम्बी पुष्ट नासिक, धनुषाकार भौहें, उभरे हुए होंठ सोन्दर्यात्मक ढंग से निरुपण हुआ हैं।
    • ऊँट ,शेर, घोडा़, हाथी प्रमुखता से चित्रित हैं।।
    • रंग :- प्राकृतिक उपादानो से प्राप्त शुद्ध रंगो, स्वर्ण रंग, सफेद एवं काले रंग के मिश्रण से का प्रयोग किया गया था।

    8. अलवर शैली

    यह शैली सन् 1775 ई.मे जयपुर से अलग होकर ‘राव राजा प्रतापसिंह’ के राजत्व मे स्वंत्रत अस्तित्व प्राप्त कर सकी।

    अलवर कलम जयपुर चित्रकला की एक उपशैली मानी जाती हैं।

    उनके राजकाल मे ‘ शिवकुमार’और ‘डालूराम’ नामक दो चित्रकार जयपुर से अलवर आये।

    डालूराम भिति चित्रण मे दक्ष थे।राजगढ़ के किले के ‘ शीशमहल’ मे भितिचित्र अंकित सुन्दर कलात्मक हैं। महल की छत विभिन्न रंगों के शीशो से जुडी हुई हैं।तथा बीच -बीच मे अनेक चित्र हैं।

     रावराजा प्रतापसिंह जी के उपरांत उनके सुपुत्र ‘राव राजा बख्तावरसिंह जी ‘ 1790- 1814 ई.ने राज्य की बागडोर संभाली।

    ‘चंद्रसखी’ एवं ‘ बख्तेश’ के नाम से वे काव्य रचा करते थे। ‘दानलीला’ उनका महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं।

    बलदेव,डालूराम, सालगा एवं सालिगराम उनके राज्य के प्रमुख चितेरे थे।

    बलदेव मुगल शैली मे और डालूराम राजपूत शैली मे काम करते थे।

    यही कारण है कि उन्होंने ‘गुलामअली’ जैसे सिद्ध कलाकारों ‘ आगामिर्जा देहलवी’ जैसे सुलेखकों एवं ‘ नत्थासिंह दरबेश’ जैसे जिल्दसाजो को राजकीय सम्मान से दिल्ली से बुलाया।

    ‘बलवन्तसिंह’ 1827-1866 ई 

    ने 23 वर्ष के राजकाल मे कला की जितनी सेवा की, वह अलवर के इतिहास मे अविस्मरणीय रहेंगी।

    वै कला प्रेमी शासक थे। इनके दरबार मे ‘सालिगराम ‘ जमनादास ,छोटेलाल, बकसाराम, नन्दराम आदि कलाकारों ने जमकर पोथी चित्रो, लघुचित्रों एवं लिपटवाँ पटचित्रो का चित्रांकन किया ।

    महाराजा मंगलसिंह 1874-1892 ई.के राजकाल मे पारम्परिक कलाकार ‘ नानकराम’ ,बुद्धराम, उदयराम, रामगोपाल कार्यरत थे महाराजा मंगलसिंह की मृत्यु के बाद उनके एकमात्र पुत्र जयसिंह 1892-1937 ई. गद्दी पर बैठे। वे रामगोपाल, जगमोहन, रामसहाय नेपालिया,’ जैसे कलाकारों ने अलवर शैली की कला को अंतिम समय तक बनाये रखा।

    विशेषताएं

    • अलवर शैली मे ईरानी, मुगल और राजस्थानी विशेषत: जयपुर शैली का आशचर्यजनक संतुलित समन्वयक देखने को मिलता है
    • पुरुषों एवं स्त्रियों के पहनावे मे राजपूत एवं मुगलई वेशभूषा का प्रभाव लक्षित होता हैं
    • अलवर का प्राकृतिक परिवेश इस शैली के चित्रों मे वन,उपवन,कुंज,विहार, महल ,आटारी आदि के चित्रांकन मे देखा जा सकता हैं।
    • रंगो का चुनाव भी अलवर शैली का अपना निजी हैं
    • चिकने और उज्जवल रंगो के प्रयोग ने इन चित्रो को आकषिर्त बना दिया।

    9. जोधपुर शैली

    मालदेव के समय में स्वतंत्र अस्तित्व में आयी, पहले इस पर मेवाड़ शैली का स्प्ष्ट प्रभाव था

    इस काल की प्रतिनिधि चित्रशैलीबके उदाहरण म “चोखे का महल” व चित्रित उत्तराध्ययन सूत्र” से प्राप्त होते है।

    जोधपुर में सूरसिंह के समय “ढोला-मारू” प्रमुख चित्रित ग्रन्थ है।

    इस चित्रों में शीर्षक “नागरी-लिपि व गुजराती” भाषा मे लिखे गए पाली का रागमाला सम्पुट मारवाड़ का प्राचीनतम तिथि युक्त कृति के रूप में महत्व रखता है।

    1623 ईस्वी में वीर जी द्वारा पाली के प्रसिद्ध वीर पुरुष विठ्ठल दास चंपावत के लिये “रागमाला चित्रवाली” चित्रित किया गया।

    रागमाला चित्रवाली , शुद्ध राजस्थानी में अंकित है महाराज गजसिंह के शासन काल मे ढोला मारू , भागवत ग्रन्थ चित्रित किये गए।

    महाराज अजीत सिंह के समय के चित्र मारवाड़ चित्र शैली के सबसे सुंदर चित्र माने जाते है अभयसिंह जी का नृत्य देखते हुए चित्र “डालचंद” द्वारा चित्रित किया गया है।

    महाराज भीमसिंह के समय चित्रित “दशहरा दरबार” जोधपुर चित्र शैली का सुंदरतम उदाहरण है महाराज मानसिंह के समय शिवदास द्वारा “स्त्री को हुक्का पीते हुए” दिखाया गया है।

    विषय

    • प्रेमाख्यान प्रधान रहा जैसे ढोला मारवल, रूपमति बाज बहादुर, कल्पना रागिनी प्रमुख।
    • प्रकृति चित्रों में मरु टीले, झाड़ एवं छोटे पौधे, विद्युत रेखाओं का सर्पाकार रूप में व मेघो को गहरे काले रंग में गोलाकार दिखाया गया है।
    • पशुओ में ऊँट, घोड़ा, हिरन तथा श्वान को अधिक चित्रित किया है।
    • बादामी आँखे, व ऊँची पाग जोधपुर शैली की अपनी देन है।

    प्रमुख चित्रकार

    शिवदास भाटी, नारायण दास, बिशन दास, किशनदास, अमरदास, रामू, नाथो, डालू, फेज अली,उदयराम, कालू, छज्जू भाटी, जीतमल प्रमुख चित्रकार रहे है।

    रंग-  लाल व पीले रंग का बाहुल्य है, जो स्थानीय विशेषता है।

    10.आमेर शैली

    जयपुर के विकासक्रम मे राजधानी आमेर की चित्र शैली की उपेक्षा नही की जा सकती हैं,

    जयपुर की चित्रण परम्परा उसी का क्रमिक विकास हैं। प्रथम -प्रारंभिक काल जब जयपुर रियासत के नरेशों की राजधानी आमेर मे थी

    द्रितीय-सवाई जयसिंह द्रारा जयपुर नगर की स्थापना के बाद परिपक्व चित्रकला का काल ।

    1589 से 1614ई. तक ‘राजा मानसिंह’के समय मे मुगल साम्राज्य से कछवाहा वंश के संबध बडे़ गहन थे।

    आमेर शैली के प्रारंभिक काल के चित्रित ग्रंथों मे ‘यशोधरा चरित्र’ (1591 ई) नामक ग्रंथ आमेर मे चित्रित हुआ।

    महाराजा सवाई मानसिंह द्रितीय संग्रहालय मे सुरक्षित ‘रज्मनामा’ (1588 ई) की प्रति अकबर के लिए जयपुर सूरतखाने मे ही तैयार की गई थी।

    इसमें 169 बडे़ आकार के चित्र हैं एवं जयपुर के चित्रकारों का भी उल्लेख हैं।

    सन् 1606 ई.मे निर्मित ‘ आदिपुराण’ भी जयपुर शैली की चित्रकला का तिथियुक्त क्रमिक विकास बतलाती हैं

    17वीं शताब्दी दो दशक के आस -पास आमेर-शाहपुरा मार्ग पर राजकीय शमशान स्थली मे ‘ मानसिंह की छतरी ‘ मे बने भित्तिचित्र (कालियादमन, मल्लयोद्रा,शिकार, गणेश, सरस्वती आदि)

    ‘भाऊपुरा रैनवाल की छतरी'(1684 ई),राजा मानसिंह के जन्म स्थान ‘ मौजमाबाद के किले’ (लड़ते हुए हाथी), ‘बैराठ’ मे स्थित ‘ मुगल गार्डन’ मे बनी छतरी मे सुन्दर भितिचित्र हैं।

    शैली का दूसरा महत्वपूर्ण चरण ‘ मिर्जा राजा जयसिंह ‘(1621-1667 ई) के राज्य काल से प्रारम्भ होता हैं

    ‘बिहारी सतसई’ ने अनेक चित्रकारों को उस पर चित्र बनाने के लिये प्रोत्साहित किया।

    ‘ रसिकप्रिया’ और ‘ कृष्ण रुक्मिणी वेलि ‘ नामक ग्रंथ मिर्जा राजा जयसिंह ने अपनी ‘ रानी चन्द्रावती ‘ के लिए सन् 1639 ई.मे बनवाया था।

    इस लोक -शैली मै कृष्ण और गोपियों का स्वरूप प्रसिद्ध था।

    11. अजमेर शैली

    राजस्थान की अन्य चित्र-शैलियों की भांति अजमेर भी चित्रकला का प्रमुख केन्द्र रहा।

    अन्य रियासतों के विपरीत राजनैतिक उथल-पुथल तथा धार्मिक प्रभावो के कारण यहां चित्रण के आयाम बदलते रहे।

    अजमेर मे जहां दरबारी एवं सामंती संस्कृति का अधिक प्रभाव रहा, वही ग्रामों मे लोक -संस्कृति तथा ठिकाणों मे राजपूत संस्कृति का वर्चस्व बना रहा।

    प्रारंभिक चित्रो मे राजस्थानी और जैन -शैली का प्रचलित रुप दर्शनीय हैं व मुगलों के आगमन के बाद मुगल स्कूल का प्रभाव देखने को मिलता हैं।

    1707 मे महाराजा अजीतसिंह के समय से अजमेर कलम पर जोधपुर शैली का प्रभाव पडने लगा।

    भिणाय, सावर,मसूदा, जूनियाँ जैसे ठिकाणों मे चित्रण की परम्परा ने अजमेर शैली के विकास और संर्वधृन मे विशेष योगदान दिया।

    ठिकाणों मे चित्रकार कलाकार करते थे जो जूनियाँ का चाँद, सावर का तैय्यब, नाँद का रामसिंह भाटी, जालजी एवं नारायण भाटी खरवे से, मसूदा से माधोजी एवं राम तथा अजमेर के अल्लाबक्स,उस्ना और साहिबा स्त्री चित्रकार विशेष उल्लेखनीय हैं।

    चित्रो की विशेषता

    • पुरुषाकृति लंबी, सुन्दर, संभ्रांत एवं ओज को अभिव्यक्ति करने वाली।
    • कानों मे कुंडल, बाली,गले मे मोतियों का हार, माथे पर वैष्णवी तिलक, हाथ मे तलवार, पैरों मे मोचड़ी धारण किये अजमेर शैली के सांमत कला के उदाहरण हैं।
    • 1698 का निर्मित व्यक्ति -चित्र इस कथन का सुन्दर उदाहरण हैं।
    • यही एक ऐसी कलम रही जिसको हिन्दू, मुस्लिम और क्रिश्चियन धर्म का समान प्रश्रय मिला।
    • सन् 1700-1750ई के मध्य के सभी चित्र नागौर से मिले हैं। 
    • इस द्रष्टि से नागौर शैली का विकास भी 18वीं शताब्दी के प्रारंभ से माना जाता हैं।
    • नागौर शैली के चित्रों मे बीकानेर, अजमेर, जोधपुर, मुगल और दक्षिण चित्र शैली का मिलाजुला प्रभाव है।

    • नागौर शैली मे बुझे हुये रंगों का अधिक प्रयोग हुआ हैं।
    • 1720ई.का ‘ ठाकुर इन्द्र सिंह’ का चित्र इस शैली का उत्कृष्ट चित्र हैं। ‘वृद्धावस्था’ के चित्रों को नागौर के चित्रकारों ने अत्यंत कुशलतापूर्वक चित्रित किया है।
    • नागौर शैली की अपनी पारदर्शी वेशभूषा की विशेषता है।
    • शबीहों का चित्रण मुख्य रुप से नागौर मे हुआ है।
    • जैसलमेर शैली की एक प्रमुख विशेषता यह रही कि इसने मुगली या जोधपुरी शैली का प्रभाव न आने दिया बल्कि यह एकदम स्थानीय शैली हैं।
    • जैसलमेर शैली का विकास मुख्य रुप से महारावल हरराज, अखैसिंह एवं मूलराज के संरक्षण मे हुआ। ‘ मूमल’ जैसलमेर शैली का प्रमुख चित्र हैं।
    • जोधपुर के दक्षिण मे स्थित गोडवाड़ भूखंड मे घाणेराव एक प्रमुख ठिकाना हैं
    • जो प्राचीन काल से मारवाड़ से जुडा़ व मेवाड़ की सीमाओं पर दोनो की संस्कृतियों को प्रभावित रहा।
    • 1775 ई.से यह केन्द्र मारवाड़ के आधिपत्य मे आ गया।
    • घाणेराव 1771 ई., गोस्वामी गोविन्दजी के साथ भीमसिंह की यात्रा,
    • 1795 ई. मे घाणेराव अजीतसिंह बाघों के बाग मे व सवाई मानसिंह 1825 ई त्यादि अनेक ऐसे महत्वपूर्ण चित्र हैं
    • जो मारवाड़ की चित्रकला मे नवीन एहसास कराते हैं।
    • एक चित्र भगवानसिंह ताम्बिया का भु चित्रित किया
    • जो मेहरानगढ़ संग्रहालय, जोधपुर मे सुरक्षित देखा जा सकता हैं।

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